मन की ख़ुशी

 


तन मन का सुख है मन से 

तन का सुख भी है मन से 

जब मन ही न रहे तो सुख कैसे?


तन को मिले सब सुख-समृद्धि 

मन को मगर न भाये एक पल भी 

जब मन ही न रहे तो सुख कैसे?


मन को मिले सब मन चाहा 

तन बेशक है अब मुरझाया 

मगर अब भी सुखी है वो काया !


तन से न तोल खुशियां कभी 

मन की ख़ुशी हो कितनी भारी 

रखती हमेशा है खुशियों की क्यारी !!


फ़िज़ा 

Comments

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-०४-२०२१) को ' खून में है गिरोह हो जाना ' (चर्चा अंक-४०२५) पर भी होगी।

आप भी सादर आमंत्रित है।

--
अनीता सैनी
ठीक कहा आपने ।
बहुत सुन्दर सार्टकैर प्रशंसनीय रचना
सुख ! मन का मानसपुत्र
सटीक और सार्थक कथन।
Dawn said…
Aap sabhi ka bahut bahut shukriya protsahan aur sarahane ke liye
Abhar

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