प्रकृति में बारिश कभी मीठी-मीठी खुशबू या फिर मौसम को रोमांचक बनाती है, तो कभी भारी बरसात से सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। जीवन का संयम भी कभी-कभी ऐसा रूख ले लेता है, कुछ तूफानी बातें तो कुछ मुकाबले की बातें.... आखिरकार जीत लडने वाले और हौसला रखने वाले की ही होती है....
बारिश की बूँदें सर-सर करे बाहर
मेरे दिल में जैसे एक तूफान आये!
बूदों की ज़िद, बिजली की कडकडाहट
तूफानी लेहरों में दिल गोते खाये!
पानी के भवँडर में, मैं धँस गई हुँ
डूबे हैं न निकले, कुछ समझ न आये!
बूँदें बरसकर बेह जातीं हैं
मैं किस ओर बहूँ कोई तो बताये!
तुझ से मिलने की बडी ख़व्वाईश है मुझे
क्या-क्या न पूछूँ और क्या-क्या न तु बताये!
तेरी इस खोखली दुनिया में बस
आज भी, उम्मीद का दिया ही जला आये!
~ फिज़ा
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Friday, March 24, 2006
Saturday, March 18, 2006
'फिजा़', मेरी मुहब्बत में न जाने
किन दिनों लिखी थी ये....इतना तो याद नहीं, परंतु किसी को सोचकर भी नहीं लिखी थी इतना तो यकीनन कहा जा सकता है। किंतु ख्याली पुलाव की तरह इसका भी कुछ अलग ही मजा़ है.... कम से कम दिल में एक गुद-गुदी सी...हल-चल ज़रूर मचा जाती...तो पेश-ऐ-खिद़मत है....
शाम हुई तो याद आते हो
दिल में मेरे बस जाते हो
पाकर पास अपने ख्यालों में
दिल मेरा धडका जाते हो
तुम्हारी बातें और तस्सवूर तुम्हारा
मेरे दिल में समा जाते हो
कभी जो सोचती हुँ अकेले में तुमको
बनके सरापा तुम आ जाते हो
'फिजा़', मेरी मुहब्बत में न जाने
तुम कितने दीप जला जाते हो
~ फिजा़
शाम हुई तो याद आते हो
दिल में मेरे बस जाते हो
पाकर पास अपने ख्यालों में
दिल मेरा धडका जाते हो
तुम्हारी बातें और तस्सवूर तुम्हारा
मेरे दिल में समा जाते हो
कभी जो सोचती हुँ अकेले में तुमको
बनके सरापा तुम आ जाते हो
'फिजा़', मेरी मुहब्बत में न जाने
तुम कितने दीप जला जाते हो
~ फिजा़
Tuesday, March 14, 2006
मेरा इंद्रधनुष
होली के ऐसे पावन अवसर पर, बचपन बडा याद आता है । पेहले ये सोचकर मन बेहला लेती थी कि अब होली
खेलने नहीं मिलता शायद इस वजह से मन रेह-रेह कर बिते दिनों की याद दिलाता है, किंतु बात ये है कि बचपन पीछा नहीं छोडता...वक्त इस कदर बदल गया है कि
शायद ही वो परंपरा अब तक जिंदा रखी गई हो। एक छोटी सी साधारण सी कविता जिंदगी के रंगों को दर्शाती हुई....
दूर गगन की छाँव में
बादलों के गाँव में
तुम को देखा इंद्रधनुष सा
यादों की तरह वो भी आऐ
कुछ पल रेह कर खुश कर गऐ
यादें ही बन गऐ हैं सहारे
कुछ भी हों, ये हैं जीने के बहाने
~ फिजा़
खेलने नहीं मिलता शायद इस वजह से मन रेह-रेह कर बिते दिनों की याद दिलाता है, किंतु बात ये है कि बचपन पीछा नहीं छोडता...वक्त इस कदर बदल गया है कि
शायद ही वो परंपरा अब तक जिंदा रखी गई हो। एक छोटी सी साधारण सी कविता जिंदगी के रंगों को दर्शाती हुई....
दूर गगन की छाँव में
बादलों के गाँव में
तुम को देखा इंद्रधनुष सा
यादों की तरह वो भी आऐ
कुछ पल रेह कर खुश कर गऐ
यादें ही बन गऐ हैं सहारे
कुछ भी हों, ये हैं जीने के बहाने
~ फिजा़
Tuesday, March 07, 2006
मेरे सवाल का कोई तो हल निकालो..!!?!!
कभी बचपन के वो दिन याद हैं, जब पंछियों को उडते देख मन मचल उठता था, माँ-पापा, या फिर टिचर की डाँट से बचने का एकमात्र मूलमंत्र....उन पंछियों को देख लालायित नहीं हो उठता था?....
ऐसे ही कुछ पलों के क्षणों को अक्षरों के सूत्र में बाँधने की एक छोटी सी कोशिश.....
नील गगन में उडते पंछी..
एक सवाल आज हम भी कर लें?
कौन देस से आती हो तुम?
कौन देस को जाती हो तुम?
आना जाना कितना अच्छा...
हम जैसे न पढना-लिखना
जब चाहे तब फुरर् हो जाना
जब चाहे जिस डाल पे बैठना..
काश! हम भी पंछी होते..
तुम संग पेंग से पेंग मिलाते
टिचर की न डाँट सुनते..
कुछ केहते ही फुरर् हो जाते
पंछी..पंछी, जल्दी बतलाओ..
मेरे सवाल का कोई तो हल निकालो..!!?!!
~फिजा़
ऐसे ही कुछ पलों के क्षणों को अक्षरों के सूत्र में बाँधने की एक छोटी सी कोशिश.....
नील गगन में उडते पंछी..
एक सवाल आज हम भी कर लें?
कौन देस से आती हो तुम?
कौन देस को जाती हो तुम?
आना जाना कितना अच्छा...
हम जैसे न पढना-लिखना
जब चाहे तब फुरर् हो जाना
जब चाहे जिस डाल पे बैठना..
काश! हम भी पंछी होते..
तुम संग पेंग से पेंग मिलाते
टिचर की न डाँट सुनते..
कुछ केहते ही फुरर् हो जाते
पंछी..पंछी, जल्दी बतलाओ..
मेरे सवाल का कोई तो हल निकालो..!!?!!
~फिजा़
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