बेहते ही जाऊँगी आवारा ...!

झर -झर भर-भर वर्षा करे तन-मन में हर्षा भीगे मेरी अंतरात्मा कभी लगे मैं आज़ाद हूँ कभी लगे पानी में जकड़ी लपक-झपक करे हाथा-पाई मन मस्त होकर मैं बरसाई निडर निरंतर निर्झर निर्मल बूंदों के बोस्से में लतपथ मैं न जाऊं बरसाती के अंदर खुलकर भीग जाने दो पल-पल बूँद की भांति मैं भी आज निकल पड़ी हूँ अपने आप नहीं सहारा नहीं किनारा बेहते ही जाऊँगी आवारा कहीं मिले गर कोई सागर मिल जाऊँगी उसमें घुलकर एक सिरे से आना ऐसा दूजे सिरे से जाना वैसा झर -झर भर-भर वर्षा करे तन-मन में हर्षा भीगे मेरी अंतरात्मा ~ फ़िज़ा