Saturday, October 27, 2007

हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई

कभी ऐसा हुआ है जब आप अकेले हों फिर भी ख्‍यालों का मेला लगा हो और कभी मेले में रेहकर भी
अकेलापन मेहसूस किया हो?
ऐसे ही एक पल को यहाँपेश करने की कोशिश....

तुम्‍हॆं ज़माने के साथ ही रेहना है
हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई

तुम मिले तो केह दिया अलविदा विरानों को
क्‍या पता था ज़रूरत है अब भी विरानों की हमें

पहली बार मिले तो ख्‍वाबों की दुनिया से जुडाये रखा
आज साथ हैं तो हकीकत से मुलाकात हुई

सोचा था न करेंगे गलतियाँ अब की बार
वही दुख है दोहरा रहे हैं ज़िदगी बार-बार

पत्‍थरीले ज़मीन से हटकर चलना चाहा
देखा कोई और ज़मीन ही नहीं हमारे आस-पास

अब तो आदत सी पड गई है चलने की
मख़मली से हो चला है परहेज़ पैरों को

सँवारने चले थे हम ज़िंदगी अपनी
आबाद हो चला कोई और हम वहीं के वहीं

दस्‍तक देती है 'फिज़ा' विरानों को
कमबख्‍़त, बेवफा हो चले हैं हमसे

'फिज़ा'

सुना है इलेक्शन बस एक खेल है !!

  हर तरफ एक खौफ सा माहौल है  सुना है इलेक्शन का ये सब खेल है  अब तक इतनी उत्तेजना नहीं थी कभी  फिर आज-कल में क्या होगया ऐसा ? सुना है इलेक्श...