कभी ऐसा हुआ है जब आप अकेले हों फिर भी ख्यालों का मेला लगा हो और कभी मेले में रेहकर भी
अकेलापन मेहसूस किया हो?
ऐसे ही एक पल को यहाँपेश करने की कोशिश....
तुम्हॆं ज़माने के साथ ही रेहना है
हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई
तुम मिले तो केह दिया अलविदा विरानों को
क्या पता था ज़रूरत है अब भी विरानों की हमें
पहली बार मिले तो ख्वाबों की दुनिया से जुडाये रखा
आज साथ हैं तो हकीकत से मुलाकात हुई
सोचा था न करेंगे गलतियाँ अब की बार
वही दुख है दोहरा रहे हैं ज़िदगी बार-बार
पत्थरीले ज़मीन से हटकर चलना चाहा
देखा कोई और ज़मीन ही नहीं हमारे आस-पास
अब तो आदत सी पड गई है चलने की
मख़मली से हो चला है परहेज़ पैरों को
सँवारने चले थे हम ज़िंदगी अपनी
आबाद हो चला कोई और हम वहीं के वहीं
दस्तक देती है 'फिज़ा' विरानों को
कमबख़्त, बेवफा हो चले हैं हमसे
'फिज़ा'
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Saturday, October 27, 2007
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