Friday, December 25, 2015

ज़िन्दगी जीने का नाम है ...!


ज़िन्दगी में गर अकेले हो 
तो साथ किसी को ले लो 
फिर उन्हें साथ रखना न भूलो !
मोहब्बत का दावा करो ज़रूर 
फिर मतलबी न बनो 
मोहब्बत दावे पर नहीं टिकती !
नज़र रखते हो सब पर गुपचुप  
दिखावा एक से प्यार का 
हर हसीना को सन्देश भेजा न करो!
तालियां बजती हैं दो हाथों से 
ये न सोचो की कोई हमेशा मड़रायेगा 
हमेशा अपना हाथ बढ़ाये रखो !
ज़िन्दगी जीने का नाम है 
न जियो तब भी चलती है 
किसी और का जीवन न जियो !

~ फ़िज़ा 

Wednesday, December 23, 2015

क्या ग़म है मोहब्बत में जीना?



जब भी कभी मोहब्बत की आग जली 
हर किसी ने उसे बुझाने की सोची  

चाहे वो एक धर्म जाती के हों  
या अलग-अलग धर्म प्रांतों के  

समाज हमेशा पेहरे देने पर चली 
रोकना, दखल देने में रही उलझी  

कभी किसी ने भी अपने मन कि की 
तब हर बार समाज की उठी उंगली 

जाने क्या गलत है मोहब्बत में  
हर कोई मारा गया मोहब्बत में 

हीर-राँझा या रोमियो जूलिएट 
बलिदान की सूली पर आखिर गुज़री 

मरना तो हर किसी को है फिर 
क्या ग़म है मोहब्बत में जीना?  

~ फ़िज़ा 

Thursday, December 10, 2015

दरअसल राहें बदल गयीं इस करके भी....



चंद राहें संग चले फिर बिछड़ गए 
दरअसल राहें  बदल गयीं इस करके भी 
चलने वाले संग होकर भी अलग हो गए !

दोस्ती बराबर की थी सही भी शायद 
कुछ था जो दूरियों को बीच ले आई 
न जाने मचलता गया फिर दिल शायद !

ग़लतियां समझो या हकीकत का आना 
निभाना है संग कसम निभाने की खायी 
खाने की होती है कसम जो पड़े निभाना !

सोचो तो बहुत कुछ और कुछ भी नहीं 
और देखो तो बहुत कुछ है जहाँ में 
कलेजों को रखना है साथ निभाना नहीं ! 

ये दुनिया है सरायघर आना जाना है 
कहीं रूह से जुड़े तो कहीं खून से 
क्यों लगाव रखना जब आकर जाना है !

~ फ़िज़ा 

Wednesday, December 09, 2015

सुलगती हुई ज़िन्दगी को दो उँगलियों के सहारे ...!!!



मैं सुलगाता हूँ 
वो सुलगती है 
मैं सुलगता हूँ 
वो सहलाती है 
मैं बहलता हूँ 
वो जलती है 
मैं जलता हूँ 
मैं जलता हूँ ?
तो कैसे बहलता हूँ?
क्यों जलता हूँ ? 
जलूँगा तो मरूंगा 
साथ लोगों को ले डूबूँगा 
इंसान हूँ तो ऐसा क्यों हूँ?
दुखी हूँ इसीलिए?
ये तो कोई उपाय नहीं
ये तो सहारा भी नहीं 
मेरी कमज़ोरी का निशाँ 
ये सुलगती हुई ज़िन्दगी 
मेरे ही हाथों जलती 
मुझ ही को बुझाती 
क्या मैं कायर हूँ? 
सुलगती हुई ज़िन्दगी को 
दो उँगलियों के सहारे 
ये तो कोई तिरन्ताज़ नहीं 
कमज़ोरी के निशाँ कहाँ तक 
और कब तक लेके घूमूं 
साहस है मुझ में भी 
निडर होकर झेलूंगा सब 
साथ जब हैं साथीदारी 
नहीं चाहिए सुलगती साथ 
जो जलकर बुझ जाती है 
फिर जलाओ तब भी 
बुझ ही जाती है... 
ऐसे ही मुझे भी शायद.... 

~ फ़िज़ा 

Thursday, December 03, 2015

चला जा रहा था ...

चला जा रहा था 
लाश को उठाये वो 
न जाने कहाँ किस 
डगर की ऒर 
मगर था भटकता 
न मंजिल का पता 
दूर-दूर तक 
न जानते हुए 
किधर की ऒर 
दिन हो या रात 
धुप हो या छाँव 
चला जा रहा था 
तभी एक छोर 
किसी ने 
रोक के पुछा -
कहाँ जा रहे हो भई ! 
यूँ लाश को उठाये ?
चौंकते हुए 
मुसाफिर ने 
देखा अजनबी को 
तो कभी खुद को 
सोचने लगा 
कहाँ जा रहा हूँ मैं ?
लाश को ढाये ?
सोच में ही 
गुज़र गया 
और वो चलता रहा 
लाश को उठाये हुए !!!

~ फ़िज़ा 

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...