उसकी आँखों से सब बयां था
वो चीख चीख कर कहा रही थीं
आज़ादी आज़ादी चाहिए आज़ादी
हर रीति-रिवाज़ों से,
आज़ादी !
नौकरी और घर की चाकरी से
आज़ादी !
बच्चों से उनकी जिम्मेदारियों से
आज़ादी !
रोज़-रोज़ के बिलों से
आज़ादी !
इस दिल से भी चाहिए
आज़ादी !
सब रिश्तों से भी
आज़ादी !
इंसान न समझे उस समाज से
आज़ादी !
बस हुआ सभी से अब
आज़ादी !
फिर भी उसके हाथ फौलादी
करते रहे परिश्रम आखिर तक
सिर्फ चाहने से कहाँ मिले हैं
आज़ादी?
~ फ़िज़ा