ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Monday, September 14, 2020
कमरों से कमरों का सफर
Wednesday, September 09, 2020
रास्ते के दो किनारे
रास्ते के दो किनारे संग चलते
मिल न पाते मगर साथ रेहते
मैं इन दोनों के बीच चलती
भीड़ में रहकर तनहा सा लगे
किसी अनदेखे खूंटी से जैसे
अपने आपको बंधा सा पाती
छूटने की कोशिश कभी करती
फिर ख़याल आता किस से?
बहुत लम्बा है ये सफर मेरा
कब ख़त्म होगा कहाँ मिलेगी
ये राहें कहीं मिलेंगी भी कभी?
थकान सा हो चला है अब तो
किसी तरुवर की छाया में अब
विश्राम ही का हो कोई उपाय
निश्चिन्त होकर निद्रा का सेवन
यही लालसा रेहा गयी है मन में
तब तक चलना है अभी और
जाने कहाँ उस तरुवर का पता
जिसके साये में निवारण शयन का !
~ फ़िज़ा
इसरायली बंकर
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