ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Thursday, December 13, 2007
मेरे सपनों की बुनी एक किताब
ज़िंदगी में एक ख्वाब
मैंने भी बुना है
मन ही मन कुछ सिला है
पुरे होने की आरजू़ है
लेकिन साथ मेरा कोई दे..!?!
इसी की आकाँशा है!
दोस्तों का साथ हो
बडों का आशि॔वाद हो
मेरे सपनों की बुनी एक किताब
कहो! है न मेरे सर पर आपका हाथ?
~फिज़ा
Monday, December 03, 2007
तेरी आँखें क्यों उदास रेहती हैं?
ऐसे ही एक पल को दर्शाते हुऐ कुछ कडियों को जोडने का प्रयास किया है...
उम्मीद है मेरे दोस्त इसिलाह ज़रुर करेंगे...
जब भी उनसे मुलाकात होती है
हालत-ए-दिल अजब सी होती है
चेहरा कुछ तो निगाह कुछ होती है
तबियत फिर कुछ खराब होती है
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्यों उदास रेहती हैं?
जब मेरे आँगन के झूले में वो
लपक के खुशी से झुमते हैं
मन ही मन में मुस्कुरा के फिर वो
चुप-चाप से हो जाते हैं...
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्यों उदास रेहती हैं?
इतनी इज़हार-ए-खुशी के बाद भी
आँखें क्यों सच बोलती हैं
क्यों नहीं छुपाया जाता फिर
दिल में पिन्हा जो बात होती है...
दिल से एक सवाल उठता है...
तेरी आँखें क्यों उदास रेहती हैं?
~ फिजा़
Saturday, October 27, 2007
हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई
अकेलापन मेहसूस किया हो?
ऐसे ही एक पल को यहाँपेश करने की कोशिश....
तुम्हॆं ज़माने के साथ ही रेहना है
हमें विरानों में रेहने की आदत पड गई
तुम मिले तो केह दिया अलविदा विरानों को
क्या पता था ज़रूरत है अब भी विरानों की हमें
पहली बार मिले तो ख्वाबों की दुनिया से जुडाये रखा
आज साथ हैं तो हकीकत से मुलाकात हुई
सोचा था न करेंगे गलतियाँ अब की बार
वही दुख है दोहरा रहे हैं ज़िदगी बार-बार
पत्थरीले ज़मीन से हटकर चलना चाहा
देखा कोई और ज़मीन ही नहीं हमारे आस-पास
अब तो आदत सी पड गई है चलने की
मख़मली से हो चला है परहेज़ पैरों को
सँवारने चले थे हम ज़िंदगी अपनी
आबाद हो चला कोई और हम वहीं के वहीं
दस्तक देती है 'फिज़ा' विरानों को
कमबख़्त, बेवफा हो चले हैं हमसे
'फिज़ा'
Wednesday, April 11, 2007
वक्त-वक्त की बात है
कुछ ऐसी बात को दरशाने की एक कोशिश मात्र...
राय की मुँतजि़र...
दूर हम कब थे जो
पास आकर फासले बना गये
प्यार की निशानी जो
बन के कँवल खिला गये
तुमने तो हमें ही भूला दिया
उसके हँसने पर रोने, पर
जो आ जाती हैं बेचेनियॉ
कभी हमसे दूर रेहकर
हुआ करतीं थीं ये मदहोशियॉ
जब लिखी जातीं थीं कविता
तो कभी शेर की पोथियॉ
फासले को भरना ठीक समझा
प्यार की निशानी से
अनमोल मोती वो नैनन का
अपनी ही माला में पिरोकर
सँवर लेते हैं उनके लिये
कभी जब याद आयेंगे
तब पेहचान होगी हमारी
फिर मुलाकातों का सिलसिला
तो कभी चाहतों की फरमाइशें
वक्त-वक्त की बात है
हम भी थे नैनन का नगिना
~फिजा़
Saturday, February 17, 2007
एक नया बीज़ बन के कोई अरमान
अक्सर इंसान ख्वाब देखता है किंतु उसे पूरा होते देखने में कई बार वो आडंबरी
रस्मों में फँस जाता है क्योंकि वो भी आखिर इन्हीं गुँथियों में गुँथ जाता है
बहुत दिनों बाद पेश है ....राय की मुंतजि़र
के तरंगों का कारवाँ हुआ हैवान
सुखी बँज़र ज़मीन पर आज फिर
एक नया बीज़ बन के कोई अरमान
आँखों से तो ले ही गया नींद
दे गया हजा़रों सपने जवान
कल जब कहा था छू कर के मेरा हाथ
दिल भी और जान भी रेह गये हैरान
इंतजा़र मे़ है 'फिजा़' ये दिल अब तो
के कब रस्मों से हों रिश्ते बयान
फिजा़
खुदगर्ज़ मन
आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है अकेले-अकेले में रहने को कह रहा है फूल-पत्तियों में मन रमाने को कह रहा है आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है ! ...
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फिर नया साल आया वोही पुराने सिलसिले मास्क टीके बूस्टर संग उम्मीदों से भरा नया साल कोशिश अब भी वही है खुश रहो, सतर्क रहो नादानी से बच...
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जिस बात से डरती थी जिस बात से बचना चाहा उसी बात को होने का फिर एक बहाना ज़िन्दगी को मिला कोई प्यार करके प्यार देके इस कदर जीत लेता है ...
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दशहरे के जाते ही दिवाली का इंतज़ार जाने क्यों पूनावाली छह दिनों की दिवाली एक-एक करके आयी दीयों से मिठाइयों से तो कभी रंगोलियों से नए...