गुज़रते वक़्त के पन्नों को उलटकर देखा
कहाँ थे, कहाँ को आगये मेरे हमराज़
चेहलती मस्ती भरी दोस्ती फिर वो पल
जहाँ न कोई बंदिश न कोई साजिश
हँसते -खेलते गुज़रते वो पल जो नहीं है
और आज का ये पन्ना जो लिख रहे हैं
हंसी तो है कुछ कम जिम्मेदारी ज्यादा
लोग हैं बहुत दोस्त बहुत कम वक़्त ज्यादा
भरी मेहफिल न अपना सब बेगाना ज़माना
मिलो हंसके बनो सबके बोलो कसके
दिखावे की ज़िन्दगी खोकली आत्माएं
भरी जेबें खोखले दिल भूखी आँखें
जो सिर्फ देखतीं तन ललचाती आँखों से
तो वहां भूखे पेट नंगे जिस्म जीने को तरसे
पन्नें उलटते यहाँ तक पहुंची बस फिर
गुज़रे पन्नों पर ही नज़र गड़ी रही अब तक
के मैं जो लिख आयी वो कहाँ हैं और ये अब?
~ फ़िज़ा