Tuesday, June 20, 2017

फिरती हूँ आजकल बेहकी-बेहकी


फिरती हूँ आजकल बेहकी-बेहकी  
गुमराह रास्तों पर अजनबी-अजनबी 
मुस्कुराते चेहरे अनजानी अजनबी सी 
क्या पता है क्या ठिकाना इस गली का 
पगडंडी से गुज़रती हुयी कतारों सी  
जहाँ कई पदचिन्ह पीछा करती हुयी  
किसे जाना है और कितनी जल्दी 
रास्ते हैं खुली बाँहों की तरह बुलाती 
कई मुसाफिर हैं तरंगों को रोकती 
कभी इठलाती तो कभी बहलाती 
मंज़िल तू है भी कहीं या यूँ ही बहकाती 
मुसाफिर हूँ मंज़िल की तलाश में 
फिरती हूँ आजकल बेहकी -बेहकी !

~ फ़िज़ा 

खुदगर्ज़ मन

  आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है  अकेले-अकेले में रहने को कह रहा है  फूल-पत्तियों में मन रमाने को कह रहा है  आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है ! ...