सवेरे-सवेरे मीटिंग में जब सुना
कल छुट्टी है क्यूंकि होली है
मन ही मन होली के गुब्बारे
रंगों से भरे दिल में फोड़ आये
मैंने कहा खुद ही से अरे ,
बुरा न मानों होली है !!!!
~ फ़िज़ा
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
सवेरे-सवेरे मीटिंग में जब सुना
कल छुट्टी है क्यूंकि होली है
मन ही मन होली के गुब्बारे
रंगों से भरे दिल में फोड़ आये
मैंने कहा खुद ही से अरे ,
बुरा न मानों होली है !!!!
~ फ़िज़ा
इस्तेमाल करते हैं हर जगह
मानों कोई एहसान जिस तरह
मदत की उम्मीद करते है कभी
दिलदार समझ कर ही आते हैं
देने वाले का गुरुर जब देखते है
चैरिटी का ओढ़ा चादर उससे
निकलकर नंगा कर देता है
कभी पैसा अँधा करता है
हर कहीं पैसे का शोशा है
अमीर गरीब का खेला है !
~ फ़िज़ा
उसके होंठों से लगे मेरे होंठ
प्यास या हवस की व्याकुलता
जब मिले, कण-कण से बुझाती तृष्णा
होठों से होकर जुबां से गुज़रते हुए
हलक से जब वो गरमा गरम
गुज़रती है तो वो किसी
कामोन्माद से कम नहीं
ये एहसास सिर्फ अनुभव है
आजमा के देखिये कभी !
~ फ़िज़ा
के कोवीड भी इस अचूक से आ मिला
जैसे ही हल्ला हुआ के मेहमान आये है
नयी दुल्हन की तरह कमरे में बंद हो गये
स्वर्णयुग से नहीं थे जो छुईमुई बन जाते
काम-सपाटा ऑफिस का खत्म कर जल्दी
चले निद्रा को पकड़ने
या हो गए उसके हवाले
जो भी था
फिर तांडव रचा कोवीड ने अंदर
घुसा तो कहीं से भी हो मगर
स्वयं स्थिर हुआ
राज रचा मस्तिष्क पर जैसे कोई प्रयोगशाला
जो भी हो रहा था
सब कुछ नज़र आ रहा था
जाने क्यों सपना हकीकत
नज़र आ रहा था
मृत्यु ,
मरना सिर्फ इस लोक के लिए है
वहां तो ये एक दरवाज़ा है
जहाँ से निकले
तो फिर मैं न मैं रहूं
और
मैं भी न जानू मैं कौन हूँ ?
~ फ़िज़ा
ज़िन्दगी के मायने कुछ यूँ समझ आये
अपने जो भी थे सब पराये नज़र आये
सफर ही में हैं और रास्ते कुछ ऐसे आये
रास्ते में हर किसी को मनाना नहीं आया
कुछ पल ही सही हम सब जहाँ में आये
सिर्फ दूसरों को मनाने खुश करते रह गये
वक़्त के संग कुछ तज़ुर्बे ज़िन्दगी में आये
वक़्त ज़ाया न करो इन में ये समझ आये
जिसका होना है वो हर हाल में हो जाये
दोस्त इन चोचलों के झांसे में क्यों आये?
ज़िन्दगी कई मौके दे -दे कर यूँ समझाये
खुद की ख़ुशी की खुदखुशी न हो जाये
~ फ़िज़ा
खूबसूरत हवाओं से कोई कह दो
यूँ भी न हमें चूमों के शर्मसार हों
माना के चहक रहे हैं वादियों में
ये कसूर किसका है न पूछो अब
बहारों की शरारत और नज़ाकत
कैसे फिर फ़िज़ा न हो बेकाबू अब
सजने-संवरने के लाख ढूंढे बहाने
दिल की मर्ज़ी कब सुने किसी की
आखिर हुस्नवालों बता भी दो वजह
फूलों के मुस्कान पे फ़िज़ा डोरे न डालो
~ फ़िज़ा
एक हलकी सी मुस्कान
जैसे सूरज की किरणें
फैलतीं हैं रौशनी ऐसे
लगे गुलाबी सा गाल
एक सादगी और शर्म
दोनों ही साथ रहकर
नज़रों को बेहाल करे
पहली मोहब्बत का
नज़ारा सेहर दिखाए
~ फ़िज़ा
सवेरे-सवेरे मीटिंग में जब सुना कल छुट्टी है क्यूंकि होली है मन ही मन होली के गुब्बारे रंगों से भरे दिल में फोड़ आये मैंने कहा खुद ही से...