कभी-कभी प्यार इंसान को उस ऊँचाई तक ले जाती है
जब वो अपने दायरे को लाँघ कर आगे निकल जाती है
फिर वो किसी एक की नहीं रेह जाती....
रोज़मरे की बातों से हटकर कुछ गुलाबी एहसासों को
पिरोने की एकमात्र कोशिश है....
आप की राय की मुंतजि़र
तुम्हारे प्यार के बरसात की एक बूँद
समेट लिया है मैंने मेरे आँचल में
आज एक बीज बनकर ही सही
कल एक कँवल बन के खिलेगा
अपनी खुशियों की दास्तान
वो सुनायेगा सभी को
दिलाकर एहसास हमारे प्यार का
वो राहगिर जगह-जगह घूम आयेगा
~फिजा़
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Wednesday, November 29, 2006
Friday, November 10, 2006
क्या ज़माना बदल गया?
बहुत दिनों बाद आज कुछ लिखने का अवसर प्राप्त हुआ !
कभी वक्त ने तो कभी हालात ने इसे मनसूब होने न दिया ः)वो यादें अक्सर अच्छी और मीठीं होती हैं, जो खुशियों से भरी हुईं रही हों
और तभी तो इंसान यादों को आज भी सँजोये रखता है !
कुछ आज की तो कुछ बचपन की यादों में छिपे फर्क को मेहसूस किया है
आप की राय की मुंतजिर.....
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
कौन कहाँ से आया
किसने देखा, खुशियों का
एक मेला जैसा लगता था
तब मौसम भी सुहाना था
वक्त जैसे पडा रेहता
बिना किसी काम के
जिसे चाहे वो उसे
उठा लेता और समा जाता उसमें
आज कितना बदल सा गया है
सब कुछ कितना मुश्किल सा
न वक्त कहीं नज़र आता है
न मौसम पुराना सा
होली-ईद-दिवाली तो दूर
जन्मदिन भी नहीं मनाया जाता
कौन कहाँ वक्त निकाले
इन झमेलों में
आज हर कोई पूछता है
दोस्ती का हाथ बढाता है
सिर्फ कमाई-साधन के लिए
किस दोस्ती का फल व्यापार बने
आज न वक्त है
न वो लोग जिन्हें
कभी सादगी पसंद
न ही खुशियाँ
फिर भी निकल पडे हैं
ढुँढने अपने वज़ूद को
पैसों की आड में
खुशकिस्मती बनाने में
मैं सोचती रेहती हूँ
क्या ज़माना बदल गया?
या मैं ज़माने में
कुछ देर से आई !?!
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
~फि़ज़ा
कभी वक्त ने तो कभी हालात ने इसे मनसूब होने न दिया ः)वो यादें अक्सर अच्छी और मीठीं होती हैं, जो खुशियों से भरी हुईं रही हों
और तभी तो इंसान यादों को आज भी सँजोये रखता है !
कुछ आज की तो कुछ बचपन की यादों में छिपे फर्क को मेहसूस किया है
आप की राय की मुंतजिर.....
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
कौन कहाँ से आया
किसने देखा, खुशियों का
एक मेला जैसा लगता था
तब मौसम भी सुहाना था
वक्त जैसे पडा रेहता
बिना किसी काम के
जिसे चाहे वो उसे
उठा लेता और समा जाता उसमें
आज कितना बदल सा गया है
सब कुछ कितना मुश्किल सा
न वक्त कहीं नज़र आता है
न मौसम पुराना सा
होली-ईद-दिवाली तो दूर
जन्मदिन भी नहीं मनाया जाता
कौन कहाँ वक्त निकाले
इन झमेलों में
आज हर कोई पूछता है
दोस्ती का हाथ बढाता है
सिर्फ कमाई-साधन के लिए
किस दोस्ती का फल व्यापार बने
आज न वक्त है
न वो लोग जिन्हें
कभी सादगी पसंद
न ही खुशियाँ
फिर भी निकल पडे हैं
ढुँढने अपने वज़ूद को
पैसों की आड में
खुशकिस्मती बनाने में
मैं सोचती रेहती हूँ
क्या ज़माना बदल गया?
या मैं ज़माने में
कुछ देर से आई !?!
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
~फि़ज़ा
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