फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ...

रिश्ते ये कुछ हम बनाते हैं तो कुछ यूँही मिल जाते हैं कुछ का सिर्फ ग़म मनालो कुछ का अफ़सोस के काश ! रिश्ते बनते हैं अपेक्षाएं भी किसी के न्यायोचित किसी के नहीं कभी लगता है सब खिलाडी हैं और इस्तेमाल स्वयं हो रहे हैं ! हर रिश्ते की भी एक अवधि है फिर माता-पिता ही क्यों न हों कुछ संस्कार मदत करते भी हैं पर जो संस्कार ही न पूरा करे ? मैं उन्मुक्त गगन की पंछी हूँ रिश्ते भी हैं रिश्तेदारी भी की हैं ज़िम्मेदारियों का एक दायरा है फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ ! ~ फ़िज़ा