Friday, October 30, 2020

रिश्ता ही बन चूका है चाँद से ज़िन्दगी का

 



मोहब्बत तो चाँद से बहुत पुराना है 

बचपन से लेकर आज तक याराना है 

तब देखने को तरसते मचलता था मन 

नयी उमंग उठने लगीं थीं मन में उससे 

पूरे चाँद-रात को ख़ुशी से मचलते थे  

अम्मी से कहते तब पूर्णिमा की रात है 

सेवइयां बनाने की यूँही ज़िद करते थे 

मीठा खाने की या चाँद से मोहब्बत 

जो भी हो दोनों के होने का आनंद लेते 

मोहब्बत परिपक्वता की सीमा पर है 

आजकल चांदनी की सेज़ में सोते हैं 

वो भी रात-भर बैठकर सुला देता है 

डर नहीं उसके जाने का अपना जो है 

ऐसा लगता है वो हरसू मुझे निहारता है 

मिलन की सेवइयां अब खुद बनाती हूँ 

मोहब्बत का स्वाद मन ही मन सहलाती हूँ  

उसकी आगोश में यूँही फ़िज़ा महकाती हूँ

रिश्ता ही बन चूका है चाँद से ज़िन्दगी का  

अब तो हरसू कविता आंखें चार रेहती हूँ !


~ फ़िज़ा 

Friday, October 16, 2020

हताश मन

 


मन बहुत प्रताड़ित है कई दिनों से 
हाथरस के हादसे की खबर ने जैसे 
अंदर ही एक कबर खुदवा रखी ऐसे 
उसमें न समा पाती है लाश भी ऐसे 
जब उसके चिथड़े-चिथड़े हो गए हों 
जानवर की परिभाषा से भी नहीं मेल 
ऐसे भी इंसान रेहते हैं गाँव-शहर में 
जहाँ स्त्री को केवल मांस का ढेर 
समझने वाले कुछ उच्च जाती के 
खूंखार हैवान जो मांस को नौचते 
मगर नीच जात बताके न छूने का 
झूठ भी बोलते कायर हैवान ये होते 
इंसान आये दिन मर रहे हैं दुनिया में 
हैवानों का बोल-बाला है आजकल 
बेटी-बहिन -पत्नी और माँ कहाँ जायेंगे 
जब हैवानों की बस्ती में आज़ाद घूमेंगे 
इनसे भले तो जानवर जो शिकार करते 
किन्तु अपनी जात से हिंसा नहीं करते 
जितना अधिक ये सोचे हताश मन होये !

~ फ़िज़ा 


Sunday, October 04, 2020

ज़िन्दगी की सब से बड़ी पहेली है...!

 


ज़िन्दगी के धूप-छाँव तो आते-जाते हैं 

यही सीखा और समझा ये  ज़िन्दगी है 

वक्त का तकाज़ा या खेल ज़िन्दगी है 

समय के साथ ज़िन्दगी थक जाती है 

समय के साथ ज़िन्दगी साथ आती है

मगर कुछ ज़िन्दगी इस साल लायी है 

अंदाज़ और अंगड़ाइयों में जो नज़ारा है 

अफ़सोस अधिक, अन्धकार ज्यादा है 

समय के साथ ज़माने के बदलते तेवर हैं 

छोटा गया बड़ा पीड़ित इसमें हेर-फेर है 

ज़िन्दगी अब कोविड के हाथों चलती है 

इसके लपेट में कौन आएगा कौन नहीं है 

यही ज़िन्दगी की सब से बड़ी पहेली है 

अब तो हर खबर जो सुनने में आये है 

वो कोविड के नाम से एक षडयंत्र है 

नियति का या समय का रचा खेल है !


फ़िज़ा 

ज़िन्दगी जीने के लिए है

कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही  ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है  देखा जाए तो खाना, मौज करना है  फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब  क्या ऐसे ही जी...