हताश मन
मन बहुत प्रताड़ित है कई दिनों से
हाथरस के हादसे की खबर ने जैसे
अंदर ही एक कबर खुदवा रखी ऐसे
उसमें न समा पाती है लाश भी ऐसे
जब उसके चिथड़े-चिथड़े हो गए हों
जानवर की परिभाषा से भी नहीं मेल
ऐसे भी इंसान रेहते हैं गाँव-शहर में
जहाँ स्त्री को केवल मांस का ढेर
समझने वाले कुछ उच्च जाती के
खूंखार हैवान जो मांस को नौचते
मगर नीच जात बताके न छूने का
झूठ भी बोलते कायर हैवान ये होते
इंसान आये दिन मर रहे हैं दुनिया में
हैवानों का बोल-बाला है आजकल
बेटी-बहिन -पत्नी और माँ कहाँ जायेंगे
जब हैवानों की बस्ती में आज़ाद घूमेंगे
इनसे भले तो जानवर जो शिकार करते
किन्तु अपनी जात से हिंसा नहीं करते
जितना अधिक ये सोचे हताश मन होये !
~ फ़िज़ा
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