ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Wednesday, November 29, 2006
वो राहगिर जगह-जगह घूम आयेगा
जब वो अपने दायरे को लाँघ कर आगे निकल जाती है
फिर वो किसी एक की नहीं रेह जाती....
रोज़मरे की बातों से हटकर कुछ गुलाबी एहसासों को
पिरोने की एकमात्र कोशिश है....
आप की राय की मुंतजि़र
तुम्हारे प्यार के बरसात की एक बूँद
समेट लिया है मैंने मेरे आँचल में
आज एक बीज बनकर ही सही
कल एक कँवल बन के खिलेगा
अपनी खुशियों की दास्तान
वो सुनायेगा सभी को
दिलाकर एहसास हमारे प्यार का
वो राहगिर जगह-जगह घूम आयेगा
~फिजा़
Friday, November 10, 2006
क्या ज़माना बदल गया?
कभी वक्त ने तो कभी हालात ने इसे मनसूब होने न दिया ः)वो यादें अक्सर अच्छी और मीठीं होती हैं, जो खुशियों से भरी हुईं रही हों
और तभी तो इंसान यादों को आज भी सँजोये रखता है !
कुछ आज की तो कुछ बचपन की यादों में छिपे फर्क को मेहसूस किया है
आप की राय की मुंतजिर.....
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
कौन कहाँ से आया
किसने देखा, खुशियों का
एक मेला जैसा लगता था
तब मौसम भी सुहाना था
वक्त जैसे पडा रेहता
बिना किसी काम के
जिसे चाहे वो उसे
उठा लेता और समा जाता उसमें
आज कितना बदल सा गया है
सब कुछ कितना मुश्किल सा
न वक्त कहीं नज़र आता है
न मौसम पुराना सा
होली-ईद-दिवाली तो दूर
जन्मदिन भी नहीं मनाया जाता
कौन कहाँ वक्त निकाले
इन झमेलों में
आज हर कोई पूछता है
दोस्ती का हाथ बढाता है
सिर्फ कमाई-साधन के लिए
किस दोस्ती का फल व्यापार बने
आज न वक्त है
न वो लोग जिन्हें
कभी सादगी पसंद
न ही खुशियाँ
फिर भी निकल पडे हैं
ढुँढने अपने वज़ूद को
पैसों की आड में
खुशकिस्मती बनाने में
मैं सोचती रेहती हूँ
क्या ज़माना बदल गया?
या मैं ज़माने में
कुछ देर से आई !?!
जाने वो कैसे लोग थे
कैसा ज़माना था वो
जब लोग होली-ईद-दिवाली
सब मिलकर मनाते थे
~फि़ज़ा
Tuesday, August 15, 2006
ज़िंदगी तेरे तो खेल निराले हैं
एक मासूम बच्चा अपने पापा की ऊँगलियाँ पकड कर पारकींग लॉट पर चला जा रहा था....
ज़िंदगी तुझ से कोई शिकायत नहीं
क्योंकि, तुने वो सब दिया
जो कभी मैंने माँगा नहीं और
जो कभी मैंने चाहा भी नहीं
कितना इंसाफ है तेरी जूस्तज़ू में
जो कभी अपना तो क्या
पराया भी नहीं जताता
मैं सोच में रेहती हूँ ज़िंदगी
तू मेरा अपना है या पराया?
तू तो हवा का झोंका है
जो कभी ठंडी हवा से
दिल मचला दे तो
कभी तूफान बनकर
खडा हो जाऐ।
ज़िंदगी तेरे तो खेल निराले हैं
तुझे मैं क्या कहूँ -
आ देखें तेरी अगली चाल क्या है ।?।
~फ़िज़ा
Tuesday, July 18, 2006
आज भी लकडियाँ बँटोरता हूँ...
इसिलाह की मुंतजि़र.....
लकडियॉ बिन ने आया था किसी रोज़
काले बादलों का कॉरवॉ आता देख
छोड गया इन्हें ये सोच..
कल फिर आॐगा !
आज नया दिन है..पहाडों की परछाई के पीछे से
किरण झॉक रही थी और शुश्क हवा
अँगिठी के पास बैठने का बहाना दे रही थी !
याद आया, आज फिर लकडियॉ बिननी है
सुना है इस बार जा़डे की सरदी कुछ लम्बी है
लकडियों पर ओस की मोतियॉ
मानों लडी बनाकर बैठीं हों !
मैंने एक नहीं मानी-गिली ही सही
उठा लाया उन्हें जलाने के वास्ते...
सुबह उठा तो देखा लकडियों पर
हरी-हरी पत्तियों की कोपलें निकल आईं हैं
मानो मरे हुये में जान आ गई !
फिर दिल न माना कुछ और सोचने
निकाल फेंका बगीचे में, के
फूलो-फलो तुम भी बगीया के किसी कोने में
बन जाओ एक इसी गुलिस्तॉ में !
फिर सोचने लगा मैं -उस दिन बादलों को देख...गर मैं
खाली हाथ न चला आता
तो शायद ये राख का ढेर बनी रेहतीं
मैं कुछ और गरम आँच सेख लेता....लेकिन फिर सोचा -
जीवन-दान की जो आँच में सुकून है
वो किसी आग की आँच में कहॉ?
आज भी लकडियाँ बँटोरता हूँ...
लेकिन देख-परेख के.....!!!
~फिजा़
Saturday, June 10, 2006
एक उपन्यास की जुस्तजू़ में
आपकी मुंतजि़र
ख्यालों के पन्ने उलटती रेहती हूँ
जिंदगी की स्याही घिसती रेहती हूँ
नये पन्ने जोड़ने की आरजू़ में,
नीत-नये दिन खोजती रेहती हूँ
जीवन के पुस्तकालय में,
'मधुशाला' को ढुँढती रेहती हूँ
शब्दकोश के इस भँडार से
जीवनरस निचोडती रेहती हूँ
स्याही-कलम के बिना भी
लिखे गये हैं ग्रंथ कई
मेरे कलम में आज भी मैं,
रंग भरती रेहती हूँ
अब के खुशियों से भरे
जीवन की हकीकत पर
पन्ना-पन्ना जोडकर
उपन्यास लिखने की
आरजू़ में रेहती हूँ
कौन से दो नयन मैं उधार लाऊँ
जहाँ मेरी इस उपन्यास को
सच्चाई की एक दुकान मिले
मैं अब भी हिम्मत जुटाते रेहती हूँ
मैं अब भी टूटती पंक्तियों को जोडती हूँ
मैं अब भी एक किताब लिखने का हौसला रखती हूँ
बोलो, क्या इसे कोई खरीदेगा??
जीवन के वो बोल समझ पायेगा??
खून की स्याही, से सींचकर रखी इस किताब को
बोलो...क्या कोई अनमोल खरीदार मिलेगा??
जो पन्नों को मेरी तरह उलट-पलट कर
गुलाब के रंग सा मेरी तन्हाई को भर देगा??
चेहलती इस दुनिया में सोचूँ...घबराऊँ.....
नाउम्मीद का अकक्षर मिटाते रेहती हूँ
हाँ, आज भी मैं कोशिश करती रेहती हूँ ...!
~फिजा़
Saturday, June 03, 2006
मुफक्किर बना दिया
जिंदगी तो हसीन ही है जाना था
परस्तार ने इसे और रंगीन बना दिया
{परस्तार = lover; worshiper}
उसकी परस्तिश में ऐसे डूबे हम
किसी परावार ने जैसे परिवाश बना दिया
{परस्तिश= worship; adoration}
{परावार= protector}
{परिवाश=angel; fairy; beauty}
घंटों बातों में डूबोकर रखना हमें
हर रंग में ढलते मोज्जाऐं जैसे दिलकश बना दिया
{मोज्जाऐं = waves}
पलभर की खामोशी जैसे मुज़तारिब कर गई
हमको तो दिवानगी में मुफक्किर बना दिया
{मुज़तारिब= restless; disturbed}
{मुफक्किर= thinker}
इस कद्र मेहाव हैं तेरी बातों में जाना
के हमें सब से मेहरूम बना दिया
{मेहाव= engrossed}
{मेहरूम= devoid of}
~ फिजा़
Monday, May 15, 2006
तसनिफ हमें आ गई
तुम से तो जैसे मैं कल ही मिली थी
फिर कैसे ये दिल की कली खिल गई?
मैंने तो चँद लम्हें ही गुज़ारे थे
किस घडी़ क्या हुआ, दिल की गिरह खुल गई
गुफ्तगू में तुम से तो मैं संभली हुई थी
फिर किन इशारों से आँखें जु़बान बन गई
चँद लम्हों की बातें तसकिन बन गईं
ऐसी जादुगरी की, तसलिम हमारी मिल गई
दूर हुँ तुम से कोसों दूर अकेली
तस्वीर तुम्हारी मुझे राहत दे गई
क्यों मैं करने लगी मुहब्बत तुम से
यही परेशानी एक मेरी रेह गई
कुछ भी केह लो, यही मैंने जाना सनम
दिल तुम्हारा हो गया, मैं पराई रेह गई
देख लो प्यार में हम गाफि़ल रेह गये
कुछ भी केह लो तसनिफ हमें आ गई ;)
गिरह= Knot
तसकिन=comfort/satisfaction
तसलिम=Acceptance/Acknowledgement
गाफि़ल=careless/negligent
तसनिफ=writing
~फिज़ा
Sunday, April 23, 2006
पेहली नज़र का धोखा
पेहली नज़र में दिल का खोना
जा़लिम ये किस कदर का धोखा
बातें ही मुसलसल हुईं थीं
फिर खत्म हुआ सब्र दिल का
जा़लिम ने चल दिया अपनी चाल
रेह गया दिल अब स्रिफ रफि़क का
रफ्ता-रफ्ता दिल करने लगा इक़रार
अब तो जैसे रकि़ब हुआ है मेरा हाल
उस से इज़हार-ए-मुहब्बत में
रक्स-ए-ता-उस दिल हुआ जाता
रग-ए-जान में मेरे जैसे तुम बसे हो
रघ़बत सी अनंजुमन में कोई बस जाता
रफि़क = friend
रकि़ब = enemy
रक्स-ए-ता उस = dance of the peacock
रक्स-ए-जान = in my viens of my life
रघ़बत= strong desire, pleasure
~ फिजा़
Wednesday, April 19, 2006
औफिस केक्युबिकल से....
जब कुछ पल अपने साथ बिताया तो अनायास ये इच्छा पुरी होती नज़र आई! ज्यादा कुछ यहाँ कहे बगैर आगे का
ब्यौरा नीचे लिखित शब्दों में... चित्रकारी स्वयं फिजा़ के हाथों....;)... किसी भी गुस्ताखी़ के लिऐ पेहले से ही खे़द है।
खाली वक्त है
और दफ़्तर की मेज़ है।
काम न हो तो भी,
काम जताने की रीत है
जब काम ही न हो
तो भला क्या काम करें
के वक्त कट जाऐ।
ये वक्त काटना भी क्या काम है...!?!
पहाड़ खोदने से न कम है
मेरी असमंजस तो देखो
कभी कंप्युटर स्क्रीन देखूँ
तो कभी सामने रखे
टिशु बौक्स को।
हो न हो इस एकांकीपन में
टिशु बौक्स पर बनी चिडी़या
फूल, पत्ती और उसकी डाली
इन सब से दिल लगा बैठी, ये 'फिजा़'!
उठाया पेंसिल हाथ में
और कर ली चित्रकारी
शुरूआत टिशु पेपर से,
फिर प्रिंटाउट पेपर और
फिर नोट-पैड पर...
यकायक ऐसा लगा
मानो मुझ में अभी है और अरमान
पंछी संग उड़ती पुरवाई
मानो इस दिल ने जाना
फूलों की खुश्बूओं को
जैसे मेहसूस किया
मन विचलित होकर
उड़ने लगा...कहीं दूर
इस औफिस केक्युबिकल से
वहाँ, जहाँ वक्त की
कोई पाबंदियाँ नहीं
और किसी की
तानाशाही भी नहीं।
अपनी चित्रकारी देख
मन स्वयं दाद देने लगा
मानो एक और कला का जन्म हुआ
दिल सोच में फिर घुम होने लगा
क्या मैं एक चित्रकार हुँ?
जिंद़गी इतनी भी बूरी नहीं के
चित्रकारी से गुजा़रा न हो पाऐ...
ऐसे ही कुछ सुनहरे पल
आज औफिस के
क्यूबिकल में बिताऐ।
~ फिजा़
Thursday, April 13, 2006
एक तुम से न हो पाये दूर शाम-ओ-सेहर
क्या पता था इंतजा़र में हो रहे थे बेखबर
जिसका करते रहे इंतजा़र शाम-ओ-सेहर
चाहत कुछ इस कद्र बढी़ है उनसे के
हर फासले हो रहे ना-कामीयाब शाम-ओ-सेहर
मेरे दिल ने फैसला किया आज उस दिवाने से
कोशिश करेंगे याद करें शाम-ओ-सेहर
किस तरह वादा करें हम याद न करने का
जब भुला ही न पाये हम शाम-ओ-सेहर
गली, शहर सब घुमें 'फिजा़' दूर-दूर
एक तुम से न हो पाये दूर शाम-ओ-सेहर
~ फिजा़
Wednesday, April 05, 2006
बूँदें
मन तो करता है, जैसे निकल पडें बरसात में ऐसे बिना बरसाती और छाते के फिर जो हो सो हो....
बारिश की बूँदें जब
टप-टप करके गिरतीं हैं
कितने सुहाने और मीठे
ऐहसास ये जगातीं है।
मोतियों सी ये बूँदें
मन पर चंचल वार करतीं हैं
आवारा बादल की भाँति
मन, सुहाने पल में खो जाता है।
कितने ही पल में जी उठती हुँ
हर बूँद जब मिट्टी से जा मिलती है
मेरे भी चंचल मन में
इंद्रधनुष सी रंगत भर देतीं हैं।
छोटी-छोटी बूँदों जैसे उनकी बातें
मन के ख्यालों में सौ बीज हैं बोतीं
उन बीजों को सिंचने के
नये-नये हल ढुंढ निकालती।
कब बूँदों जैसे मैं मिल जाऊँ
दरिया के सिने से लग जाऊँ
उन के ही रंग में रंग जाऊँ
कैसा जादू कर देतीं हैं।
सावन के ये बरसाती बूँदें
कहीं हैं ये उमंग लातीं
कहीं ये सुख-चैन ले जातीं
दोनों ही पल सबको सताती।
कुछ मीठे तो कुछ खट्टी यादें
हर एक का मन ललचातीं
ऐसी ही कुछ सपने बुनने
वो कुछ पल हमको दे जातीं।
एक उषा की किरण जैसे
सबके मन में विनोद हैं लातीं
कितने ही सच्चे और मीठे
जीने की हैं राह दिखाते।
~ फि़जा़
Saturday, April 01, 2006
जाना! सुबह हो गई...
से प्रज्जवलित हो उठतीं हैं। प्रातःकाल, स्नान लेते वक्त कुछ बातें अकस्मात ही मन कि आँगन में खलबला उठीं...
बातें जो शब्द बनकर ध्यान में विचरण करने लगीं...बस दिल उन्हीं ख्यालों को पिरोने लालायित हो उठा...
इस नाचीज़ की ये एक कृति कुछ इस तरह पेश है....
कल रात कुछ थकीं-थकीं सी थीं
और उनकी बाहों में नींद का आना
उषा की लालिमा चारों ओर फैल चुकीं थीं
फिर भी मैं नींद की
गहराईयों से लिपटी पडी थीं
इतने में उनका आना
मानो एक किरण बनकर
मुझे नींद की गोद से उठाना
और प्यार से केहना -
जाना! सुबह हो गई...
ये लो कौफी का ये प्याला !
मानो, मेरी सुबह रोशन हो गई
उनके प्यार की खुश्बू
मेरे दिन को मेहका गई
मैंने धीरे से पलकों के किवाड़ों को
खोलने की कोशिश की...
मानो, दिल और नींद की असमंजस में
और इसी द्वंद में फँसी रही...
आज भी नींद की खुश्क वादियों में
फि़जा़ बनकर मेहकती रही..
~ फि़जा़
Friday, March 24, 2006
आज भी, उम्मीद का दिया ही जला आये!
बारिश की बूँदें सर-सर करे बाहर
मेरे दिल में जैसे एक तूफान आये!
बूदों की ज़िद, बिजली की कडकडाहट
तूफानी लेहरों में दिल गोते खाये!
पानी के भवँडर में, मैं धँस गई हुँ
डूबे हैं न निकले, कुछ समझ न आये!
बूँदें बरसकर बेह जातीं हैं
मैं किस ओर बहूँ कोई तो बताये!
तुझ से मिलने की बडी ख़व्वाईश है मुझे
क्या-क्या न पूछूँ और क्या-क्या न तु बताये!
तेरी इस खोखली दुनिया में बस
आज भी, उम्मीद का दिया ही जला आये!
~ फिज़ा
Saturday, March 18, 2006
'फिजा़', मेरी मुहब्बत में न जाने
शाम हुई तो याद आते हो
दिल में मेरे बस जाते हो
पाकर पास अपने ख्यालों में
दिल मेरा धडका जाते हो
तुम्हारी बातें और तस्सवूर तुम्हारा
मेरे दिल में समा जाते हो
कभी जो सोचती हुँ अकेले में तुमको
बनके सरापा तुम आ जाते हो
'फिजा़', मेरी मुहब्बत में न जाने
तुम कितने दीप जला जाते हो
~ फिजा़
Tuesday, March 14, 2006
मेरा इंद्रधनुष
खेलने नहीं मिलता शायद इस वजह से मन रेह-रेह कर बिते दिनों की याद दिलाता है, किंतु बात ये है कि बचपन पीछा नहीं छोडता...वक्त इस कदर बदल गया है कि
शायद ही वो परंपरा अब तक जिंदा रखी गई हो। एक छोटी सी साधारण सी कविता जिंदगी के रंगों को दर्शाती हुई....
दूर गगन की छाँव में
बादलों के गाँव में
तुम को देखा इंद्रधनुष सा
यादों की तरह वो भी आऐ
कुछ पल रेह कर खुश कर गऐ
यादें ही बन गऐ हैं सहारे
कुछ भी हों, ये हैं जीने के बहाने
~ फिजा़
Tuesday, March 07, 2006
मेरे सवाल का कोई तो हल निकालो..!!?!!
ऐसे ही कुछ पलों के क्षणों को अक्षरों के सूत्र में बाँधने की एक छोटी सी कोशिश.....
नील गगन में उडते पंछी..
एक सवाल आज हम भी कर लें?
कौन देस से आती हो तुम?
कौन देस को जाती हो तुम?
आना जाना कितना अच्छा...
हम जैसे न पढना-लिखना
जब चाहे तब फुरर् हो जाना
जब चाहे जिस डाल पे बैठना..
काश! हम भी पंछी होते..
तुम संग पेंग से पेंग मिलाते
टिचर की न डाँट सुनते..
कुछ केहते ही फुरर् हो जाते
पंछी..पंछी, जल्दी बतलाओ..
मेरे सवाल का कोई तो हल निकालो..!!?!!
~फिजा़
Monday, February 27, 2006
सर्द हवाओं ने फिर छेडी है जैसे
कल की सुबह वाकई रंगीन थी..ये बात और है के....रंगत को अमावस्या की हवा लग गई...;)....अर्ज किया है...
एक तूफानी रात...बिजली की कडकडाहट तो साँय-साँय करती हवा मानो जैसे कुछ ठानकर आई हो............
सर्द हवाओं ने फिर छेडी है जैसे
वही दिल के अरमानों को
किसी की याद सिने में...
आज भी धडक रही है ऐसे
रेह-रेह कर तुझे
बुलाती है....
आ ! फिर एक बार मुझे
अपना बनाने के लिये आ ऐसे
उसके आते ही ऐसा लगा जैसे
सर्द हवाओं का झोंका आया
एक तूफानी रात से भरी
घनघोर बारिश में जैसे
भीगी हुई जुल्फों से टपकता पानी
ये कह रही हों जैसे
झुम के बरसों बस
भीग जाने दो आज मुझे ऐसे
जब ठंड से पलकें खुलीं तो
देखा तूफान तो था
बारिश अब भी जोरों से बरस रही थी
और मैं......बस भीग रही थी....
हाँ!!! तूफानी बारिश में भीग रही थी ऐसे!!!!
~ फिज़ा
Wednesday, February 22, 2006
नई जगह है नये हैं लोग, नई है फिजा फिर भी...
जहाँ नये जगह पर आने की खुशी तो है ही...लेकिन कहीं उदासी भी है....पुरानी जगह से दूर रेहने की वजह से....
जिस तरह पौधा एक क्यारी से दुसरी क्यारी में अपना स्थान गृहण कर लेता है...ठीक उसी तरह हम भी खानाबदोश
कि भाँति निकल पडे हैं....नये रंग और नयी दुनिया में....एक नई उमंग और नये हौसले के साथ.....
माँ का ठंडा आँचल मुझको आज फिर याद आया
इतने दिनों के बाद किसी ने खूब मुझे रुलाया है
कल तक खुश-खुश काट रही थी जीवन अपना
घर के खाली कमरे में आज यादों का दीया जलाया है
बरसों बाद मिले हो तुम दिल की ऐसी हालत है
माँ ने जैसे बच्चे को लोरी गाके सुलाया है
तुझको पा के खुशियों के मैं दीप जलाया करती हुँ
नये कल की कोशिश में अच्छा एहसास जगाया है
नई जगह है नये हैं लोग, नई है 'फिजा' फिर भी
अपनी धरती के जो रंग हैं उनको मन में बसाया है
~फिजा
Monday, February 20, 2006
हम कहाँ के हैं इंसान....?
उमर ढलती जा रही है
जिंदगी शरमा रही है
इस मकान की चौखट से
माँ ये गाना गा रही है
सामने लेटा है बचचा
और वो सुला रही है
बरतनों में सिरफ पानी
आग पर चढा रही है
बासी रोटियों के टुकडे
समझकर अमरित खा रही है
सामने बडा सा घर है
जिस से रोशनी आ रही है
खूब हंगामा मचा है
मौसगी बहार आ रही है
साज् पे थरकते लोग
मगरिब जिला पा रही है
हम कहाँ के हैं इंसान
समझ कयों नहीं आ रही है ?
~ फिजा
Friday, February 17, 2006
भीगा भीगा मौसम है....
बारिश का मौसम, और काले बादलों का छा जाना मेरे लिऐ कभी छुटिट्यों से बढकर नहीं लगे ये दिन
वो पाठशाला के दिन याद आ जाते हैं.....बेहते पानी के नालों में खेलना....बहुत देर तक भिगना और फिर घर पहुँच कर तरह तरह के बहाने बनाना....माँ की डाँट सुनकर भी ... मेरी पसंदगी बरकरार रही
भीगा-भीगा मौसम है
भीगा- भीगा सा आँचल
मन में एक उमंग है तो,
कहीं कुछ उदासी सी भी ..
ऐसे में कोई साथी हो तो,
मौसम का कुछ और मजा है
बहारों की ये मौसगी जो,
इंतजार तेरा करवाती है
कयों न कोई ऐसी बात हो,
के दिदार-ए-यार आज हो जाऐ
भीगे से इस मौसम में
कयों न आज हम भी भीग जाऐं
भीगे आँचल में ही सही,
हम तुम एक हो जाऐं कहीं
~ फिजा
Wednesday, February 15, 2006
बाली उमर में हम को लगा है ये रोग
बाली उमर में हम को लगा है ये रोग
हम अपने घर की राह को ही भुलने लगे
ऐसा चढा है ईशक, तेरी मुहबत का
तुझ से ऐक नये रिशते को जोडने लगे
हम तो तेरी ओर खिंचे चले आते हैं
तुम रसमों की सदाऐं हमें देने लगे
ये मुहबत का कसुर है या बाली उमर का
हमेँ तुम ही कसुरवार ठेहराने लगे
ये ईशक अब कहाँ रुक पायेगा 'फिजा'
कयों तुम हम से दामन बचाने लगे
~फिजा
Sunday, February 12, 2006
किसी सौदाई की चाहत में जिसे ठुकराया कभी...!!
बडे दिनों से मैं अपनी लिखी गजल...जो के गजल की परिभाषा से बिलकुल भी मेल नही खाते ... मेरा मानना है के शायरी को जिस मीटर याने बेहर में लिखना चाहिऐ....मैं उस मुकाम तक नहीं पहुँची हुँ!!!!
किंतु जैसा कहा जाता है ...कोशिशें अकसर सफलता की ओर ले जाती हैं
मेरी भी ऍक कोशिश....ऍक परयास...देखें मुझे किस तरह से मेरे साथी इसिलाह देते हैं....
अरज किया है ....
उसी का जिकर किया करती थीं सरद हवा कभी
जो मन मंदिर में मेरे रेहता था कभी
यही रफीक था जो आज हम से शकी है
बिना कहे दिलों की बात जानता था कभी
जैसे परियों का फलक से हो उतरना धरती पे
उस की बातें मेरे दिल में थीं पोशीदा कभी
उस के हर लफज से आती थी वफा की खुशबु
किसी सौदाई की चाहत में जिसे ठुकराया कभी
अब ~फिजा~ हो जो पशेमान तो चारा कया है
अपने हाथों से गँवाईं थीं कई खुशियाँ कभी
~फिजा
Tuesday, February 07, 2006
कौन हुँ मैं ?
भीड में युहीं हम टेहल रहे थे
ये सोच कर के हम अकेले हैं
चलते गऐ हम बस चलते गऐ
न जानते हुऐ के मंजर किधर है
मौसगी का तकाजा था जो
हम भी थे कुछ बेहके बेहके से
के अचानक से लगा जो हम अकेले से थे
कोई साथ हो लिया हाथ हमारा पकड के
इस दोसती को मेहसुस ही कर रहे थे
के भीड से ये आवाज आई
"कौन हो तुम, कया जात हो तुम
कहाँ से आये और कया चाहते हो तुम?"
अचानक ही सब थम सा कयों गया
ये जो लुतफ है इसे उठाने कयों न दिया
साकी की खुशी मना भी न सके
के "फिजा" ये सवाल उठ खडा हो गया
कया मैं ऐक इंसान नही हुँ?
कया सिरफ इतना नही है जरुरी?
इनही खयालात में हम
फिर खो गये भीड में अकेले हम!!!!
~फिजा
Monday, February 06, 2006
तेरा इंतजार करती है ....!!!!
ये घने शाम के बादल
मुझ से तेरा
पता पुछते हैं
और मैं
इन फिजाओं में
उडते पंछियों से
तेरी खबर लेती हुँ
तु जो परदेस गया है तो
न खबर लौट के ली
तुने
के मेरी हर साँस
तेरा इंतजार करती है
लौट आ! के मेरी रुह
अब तडपाती है
लौट आ...!!
~फिजा
Sunday, February 05, 2006
जिंदगी बहुत अनमोल है......!
अकसर पढा है मैंने कि ऐक छातरा की पेहली पाठशाला और अधयाय उसकी माँ होती है....किंतु मेरे जीवन में मेरी माँ का हाथ तो बहुत बडा है मुझे ऐक औरत बनने में किंतु मेरे पिता का जो योगदान है वो बहुत बडा है...! उनहोंने, मुझे जिंदगी की कडवी सचचाईयों से उन दिनों से ही परिचय करवाना शुरु कर दिया था ....जब मैं अपनी दुनिया और जिंदगी को सिरफ अपने परिवार के इरद गिरद ही पाती थी मैं तो अनजान थी के...ऐसे भी कोई पल होंगे जहाँ हम अपने माता पिता, भाई बहन से दुर होंगे...कभी अपनी दुनिया केहने में उन लोगों का सिरफ साया होगा....साथ न होगा...!!!
ऐसे अनजाने बचपन में पिताजी के मुहावरें....बहुत गेहरे असर छोड जाती थीं....मन अकसर सोच में पड जाता और उन मुहावरों को हकीकत का रुप देकर उसे देखने और परखने की कोशिश किया करती थीं......
दुनिया में सभी अकेले हैं
इसिलिऐ अकेले होने का गम न कर
साकी अपनी जिंदगी खुद जीनी है
तु किसी साथी की तलाश ना कर
दिल बडा नादान है
जानता नहीं कया माँगता है
समझदारी इसी में है
के दिल को मना लेना है
वरना ये ऐक बहाना है
बेसबब दुख उठाना है
परेशानियों में जीना है
और मर कर भी जीना है!!!!
जिंदगी बहुत अनमोल है
तुम कया जानो कया मोल है
अचछे अचछों से पुछिऐ
जिसने काटे हैं रात भी धुप में!!!!!
~फिजा
Thursday, February 02, 2006
बचपन के वो पल !!!!
जी हाँ इंसान का मन बडा चंचल होता है और इसी चंचलता के लकशण हैं कि मन नऐ नऐ अठखैलियाँ खेलता है जीने की राह ढुंढते हुऐ....निकल पढता है...ऐसे ही कुछ पल....इस कविता में पिरोने की ऐक माञ परयास........
मेरे जीवन के वो पल
याद आते हैं रेह रेह कर
वो कक्षा में जाना और
मिलकर धुम मचाना पर
मासटर जी के आते ही....
चुपके से हो जाना फुर!!!
काश ये बचपन ऐसे ही
सदा रेहतीं मेरे संग
पापा की वो पयारी दुलारी
बनकर माँ को जलाना फिर
ऐसे ही कुछ हरियाली पल
याद आते हैं रेह रेह कर!!!
अब तो सिरफ रेह गईं हैं यादें
जो हरदम खुशीयों के फुल खिलाते
साथ में दो आँसु भी लाते
जब सहेलियों के खत हैं आते
सबसे पेहले माँ को हें बताते!!!
~फिजा
खुदगर्ज़ मन
आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है अकेले-अकेले में रहने को कह रहा है फूल-पत्तियों में मन रमाने को कह रहा है आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है ! ...
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