चला जा रहा था
लाश को उठाये वो
न जाने कहाँ किस
डगर की ऒर
मगर था भटकता
न मंजिल का पता
दूर-दूर तक
न जानते हुए
किधर की ऒर
दिन हो या रात
धुप हो या छाँव
चला जा रहा था
तभी एक छोर
किसी ने
रोक के पुछा -
कहाँ जा रहे हो भई !
यूँ लाश को उठाये ?
चौंकते हुए
मुसाफिर ने
देखा अजनबी को
तो कभी खुद को
सोचने लगा
कहाँ जा रहा हूँ मैं ?
लाश को ढाये ?
सोच में ही
गुज़र गया
और वो चलता रहा
लाश को उठाये हुए !!!
~ फ़िज़ा
1 comment:
Touching!!
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