लगता है जैसे हँसते हैं इंसानों पे !


 जहाँ खुला आसमान उड़ते पंछी देखूँ 

लगता है जैसे हँसते हैं इंसानों पे !


वक़्त ऐसा आ चला है जहाँ पर 

बिना पिंजरे के बंधी बने हैं लोग !


अब तो हालत ऐसा है जनाब

जाना चाहो वापस जाने न दें !


किसी के विरुद्ध क्या बोलोगे अब 

कुछ कहने से पेहले ही बोलती बंद !


कटुक नीबूरि कहाँ कनक कटोरी 

पिंजर बंध कनक तीलियाँ भी नहीं !


खूब हंसो तुम पंछी खूब हंसों  

पैरों पर जो मारी है कुल्हाड़ी !


~ फ़िज़ा 

Comments

Bharti Das said…
बहुत ही सुन्दर रचना
भावभरी अभिव्यक्ति।
Dawn said…
Bharti Das ji aur Jigyasa Singh ji, aapka behad shukriya meri rachna ko padhkar use sarahane ke liye. Dhanyavaad!

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