मैं सुलगाता हूँ
वो सुलगती है
मैं सुलगता हूँ
वो सहलाती है
मैं बहलता हूँ
वो जलती है
मैं जलता हूँ
मैं जलता हूँ ?
तो कैसे बहलता हूँ?
क्यों जलता हूँ ?
जलूँगा तो मरूंगा
साथ लोगों को ले डूबूँगा
इंसान हूँ तो ऐसा क्यों हूँ?
दुखी हूँ इसीलिए?
ये तो कोई उपाय नहीं
ये तो सहारा भी नहीं
मेरी कमज़ोरी का निशाँ
ये सुलगती हुई ज़िन्दगी
मेरे ही हाथों जलती
मुझ ही को बुझाती
क्या मैं कायर हूँ?
सुलगती हुई ज़िन्दगी को
दो उँगलियों के सहारे
ये तो कोई तिरन्ताज़ नहीं
कमज़ोरी के निशाँ कहाँ तक
और कब तक लेके घूमूं
साहस है मुझ में भी
निडर होकर झेलूंगा सब
साथ जब हैं साथीदारी
नहीं चाहिए सुलगती साथ
जो जलकर बुझ जाती है
फिर जलाओ तब भी
बुझ ही जाती है...
ऐसे ही मुझे भी शायद....
~ फ़िज़ा
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