तन मन का सुख है मन से
तन का सुख भी है मन से
जब मन ही न रहे तो सुख कैसे?
तन को मिले सब सुख-समृद्धि
मन को मगर न भाये एक पल भी
जब मन ही न रहे तो सुख कैसे?
मन को मिले सब मन चाहा
तन बेशक है अब मुरझाया
मगर अब भी सुखी है वो काया !
तन से न तोल खुशियां कभी
मन की ख़ुशी हो कितनी भारी
रखती हमेशा है खुशियों की क्यारी !!
फ़िज़ा
6 comments:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-०४-२०२१) को ' खून में है गिरोह हो जाना ' (चर्चा अंक-४०२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
ठीक कहा आपने ।
बहुत सुन्दर सार्टकैर प्रशंसनीय रचना
सुख ! मन का मानसपुत्र
सटीक और सार्थक कथन।
Aap sabhi ka bahut bahut shukriya protsahan aur sarahane ke liye
Abhar
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