ये शाम



वो देखता है मुझे यहाँ 
मैं देखूं उसे यहाँ वहां 
ढूंढे न मिले ऐसा भी कोई 
जिसे कहते हैं लोग चाँद 
चुपचाप देखना कुछ न कहना 
मन के आँसूं यूँही पी जाना 
उसे एहसास है ये मगर 
बंधे हैं हाथ उसके भी ऐसे 
अपनी दिनचर्या के परे 
वो भी क्या कर सकता है 
जब उसे आना चाहिए 
तब वो आता और जब 
अमावस्या आये तो गायब 
भला चुप ही तो रहा जाए 
कुछ भी तो नहीं कहा जाये 
चाहे कोई यूँही चिल्लाये 
मचाये शोर-गुल खैर 
अपनी तो हर शाम 
ख़ामोशी में बीत जाए 
ये शाम और एक सही !

~ फ़िज़ा 

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