क्यों न मोहब्बत के रंग में खेलें होली



अब के सर्दियाँ तो गयीं नहीं 
सावन और बसंत का मिलन 
कुछ इस तरह रंग लाया है 
फूलों को खिलने का तो 
बरखा को उसे सँवारने का 
जैसे कोई अनहोनी सी सही 
मगर इनका मिलन तो होगया 
कहीं शुष्क सेहर दिल गुदगुदाए 
तो बसंत के फूल बिखेरें खुशबु
माहौल तो जैसे बन जाये संयोग 
फ़ज़ा भी राज़ी ये दिल भी राज़ी 
क्यों न मोहब्बत के रंग में खेलें होली 

~ फ़िज़ा 

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