यूँ ही खिड़की से जब बाहर देखा
सूरज की मुस्कान को पहले देखा
ताड़ के पत्तों को हिलते-डुलते देखा
कुछ पंछियों को गगन में चहचहाते देखा
कुछ तो बिजली के तारों पर झूलने लगीं
यही दृश्य बचपन की याद दिला गया
ऐसी ही खिड़की मेरे कमरे में भी थी
जहाँ से संसार की ख़ुशी झलकती थी
बस फर्क सिर्फ इतना ही था तब
पंछी अपने लगते थे पेड़ आमों के होते थे
आज कुछ अजनबी पेड़ों को देखा
मन अनायास उन खिड़कियों में झांकने लगा
बहुत दूर का सफर तय हुआ जब हुआ
सोचा नहीं था तब इतनी दूर आजायेंगे
चलते-चलते हम कहाँ के थे और कहाँ के हो गए?
~ फ़िज़ा
सूरज की मुस्कान को पहले देखा
ताड़ के पत्तों को हिलते-डुलते देखा
कुछ पंछियों को गगन में चहचहाते देखा
कुछ तो बिजली के तारों पर झूलने लगीं
यही दृश्य बचपन की याद दिला गया
ऐसी ही खिड़की मेरे कमरे में भी थी
जहाँ से संसार की ख़ुशी झलकती थी
बस फर्क सिर्फ इतना ही था तब
पंछी अपने लगते थे पेड़ आमों के होते थे
आज कुछ अजनबी पेड़ों को देखा
मन अनायास उन खिड़कियों में झांकने लगा
बहुत दूर का सफर तय हुआ जब हुआ
सोचा नहीं था तब इतनी दूर आजायेंगे
चलते-चलते हम कहाँ के थे और कहाँ के हो गए?
~ फ़िज़ा
#happypoetrymonth
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