Sunday, April 29, 2018

कैसा हैं ये इंसान जगत भी ...!

एक कबूतर ने दूसरे से कहा
क्यों ये इंसान इतने लड़ते हैं
बात-बात पर हक़ जताते हैं
हक़ जताकर भी कितने मजबूर हैं
ये बात सुनकर दूसरे कबूतर ने कहा
इंसान होकर भी ये मजबूर हैं ?
किस बात का फिर हक़ जताते हैं?
इस पर पहले कबूतर ने कहा
बहुत ही मतलबी और स्वार्थी हैं
किसी भी जगह जाकर रहते हैं
और उस पर अपना हक़ जताते हैं
अपने ही जैसे अन्य किसी को
आने या रहने नहीं देते हैं
हर समय आज़ादी का नाम
मगर चारों तरफ पहरा रखते हैं
इतना स्वार्थी और डरपोक हैं
अपने ही जैसों को दूर करते हैं
इंसान एक दूसरे के खून के प्यासे
सीमाएं बनाकर रखते हैं
एक जगह से दूसरे जगह
हम तुम जैसे नहीं जाते हैं
इनकी हर जगह, हर राज्य
सीमाओं से बंधा हुआ है
दूसरा कबूतर दया के मारे
सोचता ही रहा गया तिहारे
कैसा हैं ये इंसान जगत भी
अकल्मन्द होकर भी जाने
क्यों अपने ही लोगों संग
यूँ व्यवहार करें, आखिर क्यों?

~ फ़िज़ा 
#happypoetrymonth

No comments:

खुदगर्ज़ मन

  आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है  अकेले-अकेले में रहने को कह रहा है  फूल-पत्तियों में मन रमाने को कह रहा है  आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है ! ...