Tuesday, April 03, 2018

ढलती शाम की काली रात ...!


शाम ढल रही थी जैसे- जैसे
उसकी उम्मीद भी जाती रही वैसे
जाने क्यों दिल हसास सा रहा ऐसे
न कोई आहट बिलकुल वीरान ऐसे 
मानो रात निगल रही है शाम को ऐसे
उसका जी घबराता, नज़रें ढूंढ़ती किसे
कोई है भी तो नहीं आस-पास ऐसे
जाने कैसे रात थी बहुत साल हुए जैसे
किसी सोच में पड़ा मुसाफिर सा जैसे
पास में ठंडा मटका नहीं सांप जैसे
बदन से सिकोटकर न सो सकते ऐसे
न ही इतनी रात कोई जागे ऐसे
कटी रात कुछ ऐसे पंछी चेहके ऐसे
तब खुली आँख देखा सेहर हो गयी जैसे
हाँ ! मैं क्यों घबरा रहा था ऐसे
इस रात की सेहर ही न हो जैसे?
मायूसी की भी हद्द है यार कैसे 
कल रात क्यों लगी लम्बी रात ऐसे
जिसकी कोई सुबह ही न हो जैसे !!!
~ फ़िज़ा 
#happypoetrymonth

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