Sunday, April 01, 2018

अभी मंज़िल बहुत दूर है !


पत्ते भी तरुवर से
टूट के बिखरते हैं
पतझड़ के बहाने
जाने कितने ऐसे
राज़ हैं छुपाये इन
पत्तों ने !
फूल खिलाने में कई
बीत जातें हैं साल
वोही कली से फिर
फूल बनकर तोड़ी
जाती है तरुवर से
हाल तरुवर का
दरख़्त का जाने
कोई ना !
फ़िज़ा का रंग तो देखो
हर मौसम में
हर पहर में ख़ुशी का
आलम संजोय रखना
जैसे दिनचर्या की रैना
वोही आलम है अपना
सबका वोही चलन है
जाने जो जाने वो राज़
जो न जाने वो रहा
वक़्त का शिकार !
दरख्तों से फूल-पत्तियों से
सीखा है मैंने हँसना
चाहे धुप हो या छाँव
या हो आंधी और तूफ़ान
चल मुसाफिर अकेले निकल
अभी तेरी मंज़िल है दूर
दूर वहां जहाँ सभी न आएं
कोई साथ दे न पाए तो
साथ ले भी न जाए
चलना ही सफर का
नियम है, मुड़के न देख
अभी मंज़िल बहुत दूर है  !
#happypoetrymonth
~ फ़िज़ा

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