Thursday, May 07, 2020

सेहर से शाम सूरज भी एक सा नहीं होता ...!



यहाँ कुछ एक हफ्ता मुश्किल से रहे 
फिर हम नए अपार्टमेंट में रहने लगे 
यहाँ कमरे की सहूलियत तो नहीं थी 
हमने बेटी संग कमरा साझा किया 
बच्ची संग दिन अच्छा गुज़रता मगर 
अब अपने काम के बाद दिन में भी 
दूसरे रेस्टोरेंट में काम करते बेकरी में 
बड़े जगहों के बड़े-बड़े नाम हैं सिर्फ 
वहां काम करनेवालों की सोचो तो 
बहुत ही न्यूनतम तनख्वा में पिसते है 
ज़िन्दगी में यही एक ध्येय रेहता  
कितने अधिक घंटे जुटा पाए बूँद बूँद से 
उतने ही अधिक वेतन मिलेगा परन्तु 
बात वही पे आजाती हैं जितना कमाओगे 
उतना ही सरकार को कर देना होगा 
कम कमाओगे तो घर-खर्चे पूरे नहीं होंगे 
इसी चक्की में दुनिया पिसती नज़र आयी 
अच्छा खासा नौकरी हम भारत में छोड़ आये 
सोचा क्या इसीलिए हम इतनी दूर आये?
मन को ये मंज़ूर नहीं था और नौकरी यही है 
ऐसा अनुमान जताना महिला का धर्म था 
सच कहें तो दुःख भी होता था ये सब देख 
इस घर में भी सभी को अपना समझा 
महिला दिन में दफ्तर जाकर शाम लौटती 
पति शाम को निकलते और सेहर ४ बजे आते 
दोनों सिरों को पूरा करने के लिए नौकरी 
तो सोच लिया था वहां नहीं रुकेंगे 
चार महीने हमने खुद को दिए
महिला की बेटी हमें प्यार बहुत करती थी 
हम संग काफी रहते और खेलते बतियाते 
महिला कभी-कभी अपमानजनक व्यव्हार करतीं 
उनके माता-पिता के आने पर उनसे भी प्यार मिला 
कित्नु घर में ही बेटी के जन्मदिन पर महिला ने 
हमें न्योता दिया नहीं बुलाया भी नहीं के आना 
हमारी नौकरी छोटी थी और तनख्वा कम 
उनकी माँ ने प्यार से कहा जो भी हो आना 
घर की सदस्य समान हो ज़रूर आना
हम उनकी माँ की इज्जत रख कर चले गए 
एक छोटा सो उपहार भी लेकर गए थे 
महिला ने ताने बरसाए तुम्हें न्योता इस वजह से 
नहीं दिया के तुम्हारे पास उपहार के पैसे न होंगे 
आज भी अच्छी तरह याद हैं मुझे वो बातें 
इंसान हमेशा एक ही परिस्तिथि में नहीं रहता 
उसके बदलने संवारने के मौके भी आते हैं 
महिला जैसी भी हो उनके पति बेटी विनीत थे 
इस अजनबी शहर में शायद अकेले रहने का डर 
उसी घर में रहे ज़िल्लत सेहकर अनदेखा करते  
किराना सामान लाना हो उस दिन हम अच्छे 
मीठी-मीठी बातें कर हमारे मन को पिघलाती 
हम भी सोचते चलो कोई नहीं आलू चावल 
अपने हाथों में भारी थैली ले आते बस में  
किराया अगर एक दिन भी देरी हुई तो 
ऐसे ताने देती थी वाक़ई दुःख होता था 
शुरू के दिन ठीक थे मगर जैसे-तैसे दिन गुज़रा 
महिला हमें अकेले में बहुत सुनाती काम करवाती 
उनके काले बर्तन हम घिसकर चमकाते 
बस फिर क्या था वो काम ही हमारा हो गया 
कभी सब कुछ भूलकर डोसा बनाकर खिलाते 
कभी उनकी तेल मालिश भी किया करते तो चम्पी भी 
सेहर से शाम सूरज भी एक सा नहीं होता 
अपने भी दिन आएंगे और अच्छे आएंगे !
~ फ़िज़ा 

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