ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ !
राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !!
एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी
सेहर यहाँ !
जाने किस किस से ग़ुस्सा है वो ? अपनों से? ज़माने से? या मुझ से? क्या मैं अपनों में नहीं आती? उसकी हंसी किसी ने चुरा ली है लाख कोशिशें भी नाकामियाब हैं उसे हर बात पे गुस्सा आता है ! अब तो और कम बोलता है वो रिवाज़ों में बंधा है सो साथ है अकेलेपन से भी घबराहट है ! इसीलिए भी शायद साथ है मगर ये ग़ुस्सा? ज़माने भर से है ! उम्मीद ही दिलासा दिलाता है इस ग़ुस्से का कोई तो इलाज हो !!! ~ फ़िज़ा
शाक से टूट गिरी ज़मीन पर सब नया डगर अनजान मगर दुनिया देखने का ये अवसर मिलता नहीं शाक से जुड़कर ! सूखे पत्तों के ढेर में और भी थे जो अनजान सही लगे अपने थे खुली आँखों से हकीकत देखा जीना असल में तभी तो सीखा ! प्रकृति का तो नियम स्वंतंत्र है जकड़े हैं सामाजिक मानदंड से आडम्बर और खोकली दुनिया में तभी तो हम इंसान कहलाये हैं ! ज़िन्दगी की बागडोर अलग है परिचित हैं मगर जाना अलग है हर कोई अपने में भी अलग है विभिन्नता को एक सा क्यों देखें? ~ फ़िज़ा
उसके ग़ुस्से पर भी प्यार आता है क्यूंकि प्यार जो मुझ से ज्यादा है !! उसका पेहल न करना अखलाता है मगर मेरे पेहल का इंतज़ार करता है !! उम्मीद बनाये रखना भी प्यार ही है वर्ना पलटकर सोते ही हाथ न पकड़ता !! खट्टा-मीठा प्यार कश्मीरी चाय जैसे स्वाद दोनों का मिले इश्क़ हो ज्यादा !! आज भी नयापन है रिश्ते में बरसों से वो गुदगुदाहट जब वो धीमे से मुस्कुरा दे !! नयी कोपलें नयी चिंगारियाँ अदभुत सा नये मौसम में मोहब्बत हौसलेमंद सा !! ~ फ़िज़ा
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