मंज़िल

 


रास्ता है एक मगर लम्बा 

मंज़िल दिख तो रही है 

मगर पहुंचना है मुश्किल 

उबड़-खाबड़ रस्ते पत्थरों के

जाएं तो कैसे जाएँ ?

मुँह मोड़ा न जाए क्यूंकि,

मंज़िल तो सामने दिख रही 

नज़रअंदाज़ करना है नामुमकिन 

मगर वही तो प्रेरणा दे रही है 

मंज़िल जो अब भी मुझे दिख  रही है 

रास्ता है एक और मंज़िल भी 

चलो चलें कहीं तो पहुंचेंगे 

शुरुवात तो करें फिर देखें !!


~ फ़िज़ा 

[ये कविता अप्रैल ७ को पोस्ट नहीं कर पायी ]

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