ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ !
राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !!
एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी
सेहर यहाँ !
जाने किस किस से ग़ुस्सा है वो ? अपनों से? ज़माने से? या मुझ से? क्या मैं अपनों में नहीं आती? उसकी हंसी किसी ने चुरा ली है लाख कोशिशें भी नाकामियाब हैं उसे हर बात पे गुस्सा आता है ! अब तो और कम बोलता है वो रिवाज़ों में बंधा है सो साथ है अकेलेपन से भी घबराहट है ! इसीलिए भी शायद साथ है मगर ये ग़ुस्सा? ज़माने भर से है ! उम्मीद ही दिलासा दिलाता है इस ग़ुस्से का कोई तो इलाज हो !!! ~ फ़िज़ा
ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में गुज़र गए पल कहाँ फुरसत सोचने की कैसा होगा कल ! हरदम साथ में हैं और सब कुछ साथ है मुद्दे की बात न हो ऐसा भी अक्सर होता है ! अनियोजित मुलाकात कुछ ऐसा रंग लायी ज़िन्दगी के बाकि हिस्से की तयारी हो गयी ! उसने कहा, ज़िन्दगी तो बस तुम्हारे ही साथ है निवृत्ति से पहले हमें साथ दुनिया घूमना है ! कुछ लम्हों की मुलाकात और बातों ने मुझे ज़िन्दगी-भर जीने की ऊर्जा और ख़ुशी देदी ! ये वैलेंटाइन का दिन भी कितना गज़ब है प्यार के नए बीज़ बोने की जगह बना गयी ! ~ फ़िज़ा
कभी ऐसे सलाहकार मिलते हैं जिन्हें कोई तज़ुर्बा होता नहीं है ! चिल्लाकर लोग सच जताते हैं भूल जाते हैं खुदी में गड़बड़ है ! बातों की रट तो है कुछ ऐसे खुद पे भरोसा ही नहीं जैसे ! आदमी शान से कहे परवाह नहीं औरत सोचे तो समाज जीने न दे ! कभी खुद के गरेबान में भी देखना फायदे में तुम भी और हम भी रहेंगे ! ऐ दुनियावालों बस बोरियत है यहाँ कब अपनी सवारी आएगी, जाना है !! ~ फ़िज़ा
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