पतझड़ में गिरा पत्ता
वो भी गीला
हर हाल से भी
रहा वो नकारा
न रहा वृक्ष का
न ही किसी काम का
बस जाना है धूल में
धरती की गोद में
जी के न काम आये
तो क्या मरके खाद बन जायेंगे !
~ फ़िज़ा
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
कल रात बड़ी गहरी गुफ्तगू रही ज़िन्दगी क्या है? क्या कुछ करना है देखा जाए तो खाना, मौज करना है फिर कहाँ कैसे गुमराह हो गए सब क्या ऐसे ही जी...
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