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उसके ग़ुस्से पर भी प्यार आता है

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  उसके ग़ुस्से पर भी प्यार आता है  क्यूंकि प्यार जो मुझ से ज्यादा है  !! उसका पेहल न करना अखलाता है  मगर मेरे पेहल का इंतज़ार करता है !! उम्मीद बनाये रखना भी प्यार ही है  वर्ना पलटकर सोते ही हाथ न पकड़ता !! खट्टा-मीठा प्यार कश्मीरी चाय जैसे स्वाद दोनों का मिले इश्क़ हो ज्यादा !! आज भी नयापन है रिश्ते में बरसों से  वो गुदगुदाहट जब वो धीमे से मुस्कुरा दे !! नयी कोपलें नयी चिंगारियाँ अदभुत सा  नये मौसम में मोहब्बत हौसलेमंद सा !! ~ फ़िज़ा 

मगर ये ग़ुस्सा?

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  जाने किस किस से ग़ुस्सा है वो ? अपनों से? ज़माने से? या मुझ से? क्या मैं अपनों में नहीं आती? उसकी हंसी किसी ने चुरा ली है  लाख कोशिशें भी नाकामियाब हैं  उसे हर बात पे गुस्सा आता है ! अब तो और कम बोलता है वो  रिवाज़ों में बंधा है सो साथ है  अकेलेपन से भी घबराहट है ! इसीलिए भी शायद साथ है  मगर ये ग़ुस्सा? ज़माने भर से है ! उम्मीद ही दिलासा दिलाता है  इस ग़ुस्से का कोई तो इलाज हो !!! ~ फ़िज़ा 

प्रकृति का नियम

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  शाक से टूट गिरी ज़मीन पर  सब नया डगर अनजान मगर  दुनिया देखने का ये अवसर  मिलता नहीं शाक से जुड़कर ! सूखे पत्तों के ढेर में और भी थे  जो अनजान सही लगे अपने थे  खुली आँखों से हकीकत देखा   जीना असल में तभी तो सीखा ! प्रकृति का तो नियम स्वंतंत्र है जकड़े हैं सामाजिक मानदंड से  आडम्बर और खोकली दुनिया में  तभी तो हम इंसान कहलाये हैं ! ज़िन्दगी की बागडोर अलग है  परिचित हैं मगर जाना अलग है  हर कोई अपने में भी अलग है  विभिन्नता को एक सा क्यों देखें? ~ फ़िज़ा 

फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ...

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 रिश्ते ये कुछ हम बनाते हैं  तो कुछ यूँही मिल जाते हैं  कुछ का सिर्फ ग़म मनालो  कुछ का अफ़सोस के काश ! रिश्ते बनते हैं अपेक्षाएं भी  किसी के न्यायोचित किसी के नहीं   कभी लगता है सब खिलाडी हैं  और इस्तेमाल स्वयं हो रहे हैं ! हर रिश्ते की भी एक अवधि है  फिर माता-पिता ही क्यों न हों  कुछ संस्कार मदत करते भी हैं  पर जो संस्कार ही न पूरा करे ? मैं उन्मुक्त गगन की पंछी हूँ  रिश्ते भी हैं रिश्तेदारी भी की हैं  ज़िम्मेदारियों का एक दायरा है   फिर बचपन सा जीना चाहती हूँ ! ~ फ़िज़ा 

सहानुभूति के अल्फ़ाज़

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  ज़िन्दगी के चंद हसीन पल ज़िन्दगी बनाने में सफल हैं  वर्ना यहाँ आये दिन तीखे शब्दों के बाण कम नहीं ! शुक्र है चंद ऐसे भी हैं जो न जानते हुए भी समझते हैं  वर्ना हर कोई अपनी अपेक्षाओं की थाली परोसे हैं ! कहाँ मिलते हैं लोग जो मैं को छोड़कर आप में बसे  यहाँ तो हर कोई खुदी में खुदा बना नज़र आता है ! जग से हर किसी को उठना है एक न एक दिन फ़िज़ा  यहाँ इंसान एक दूसरे की नज़रों से ही उठा जा रहा है ! रेहम! दोस्तों ऐसे भी हैं जो अंदर ही अंदर कूटते हैं  कुछ सहानुभूति के अल्फ़ाज़ नहीं तो इशारा ही दे दें ! ~ फ़िज़ा