जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची !
तरसती हूँ बचपन की धरती ।
जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥
धर्म न था तब कोई बँटवारा ।
सबको मानें एक ही धारा ॥
दीवाली की मिठाई मिलती ।
ईद की सेवइयाँ भी खिलती ॥
तरसती हूँ बचपन की धरती ।
जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥
सुनने का था सबमें धैर्य ।
मन में न था छल कपट न वैर्य ॥
थाली एक, नज़रिया भिन्न ।
हँसी हटा देती सब क्षुब्ध मन ॥
तरसती हूँ बचपन की धरती ।
जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥
भाषाएँ अलग, पर मुस्कान ।
इशारों में मिलता सम्मान ॥
न भय किसी का, न दूरी थी ।
बस आदर ही आदर छायी थी ॥
तरसती हूँ बचपन की धरती ।
जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥
चोरी को मजबूरी कहते ।
करुणा से ही सारे हल लेते ॥
उषा-फ़रज़ाना संग खेल ।
मानवता का था जीवन मेल ॥
तरसती हूँ बचपन की धरती ।
जहाँ हँसी थी निर्मल, सच्ची ॥
~ फ़िज़ा
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