दूर क्षितिज पर निखरा -निखरा
काले-काले अक्षरों जैसा
भैंसों के झुंड को आते देखा
आँखें मल -मल देखूं जैसे
मानो सब जानू मैं ऐसे
किन्तु पढ़ न पाँऊं ये कैसे
कोस रहा अपने ही किस्मत को
जब दिखा काले अक्षरों में
स्वागत का परचम !
कहता दिवस है हिंदी का आज
लिखो-पढ़ो-कहो कुछ हिंदी में
जब हो अपनी जननी की भाषा
एक दिवस ही क्यों न हो
जिस किनारे भी हो भूमि के
करो याद उन मात्राओं को
उन लफ़्ज़ों को उन अक्षरों को
जिन से कभी मिली मॉफी
तो कभी शाबाशी या फिर
खुशियों की फव्वारों सा
स्नेहपूर्ण आज़ादी जहाँ
निडर बनके केहदी हो
अपने मन की व्यथा-कथा
जय-हिंदी !
~ फ़िज़ा
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