हाय! कैसे कोई कहे ये है बरखा का खेल !!


बारिशों का मौसम और वो मन की चंचलता 
क्यों लगे मुझे जैसे पाठशाला की हो बुट्टी 
या फिर दफ्तर से लेते हैं चलो छुट्ठी 
सफर का एक माहौल सजाता है चित्तचोर 
निकल पड़ो यूँही राह में दूर कहीं बहुत दूर 
जहाँ न हम होने का हो ग़म, न तुम होने का 
निकल पड़ो बरसात में भीगते हुए कुछ पल 
संगीत को करने दो उसकी अठखेलियाँ 
फिर तुम चाहे हो जाओ बावले दीवाने कहीं 
भूल जाओ कोई है इस जहाँ में या उस जहाँ में 
मदमस्त होकर मंद हो जाओ मूंदकर आँखें 
प्रकृति के संग हो जाये वो संगम मोहब्बत का 
आलिंगन हो ख्वाबों और हकीकत का 
प्यार करो इस कदर के हर पत्ता हर कण कहे 
मैं वारि जाऊँ बलिहारी जाऊँ इस दीवानेपन पर 
जहाँ सिर्फ बारिश की बूँदें नज़र आये पर्दा बनके 
बारिशों का मौसम और वो मन की चंचलता
हाय! कैसे कोई कहे ये है बरखा का खेल !!

~ फ़िज़ा 

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