मैं जब आया था
चलना तक नहीं आता था
धीरे-धीरे सीखा चलना
धीरे-धीरे सबको जाना
रहा परिवार में सबके संग
फिर निकल पड़ा अकेला
ढूंढ़ते, चलते मिला किसी को
बना लिया संग जीवनसाथी
फिर चलता गया संग-संग
जवानी आई योवन भी आया
जैसे आया वैसे ही चला भी गया
बच्चे, जिम्मेदारी ने संभाला ठेला
फिर वक़्त गुज़रा कुछ इस तरह
के फिर लगा अब अकेले हैं
ज़िन्दगी की गाडी चलती ही अकेली
सुनसान रास्ते और गहरा सफर
आये थे अकेले मिले बहुत साथी
अब वो वक़्त भी आया जब
अकेलेपन को लगाया गले
फिर मौत के सफर में गिला नहीं
कुछ रहता नहीं हर दम हमेशा
वक़्त के साथ पत्ते भी सूखकर
गिरजाते हैं पतझर का मौसम जताके
ऐसे में पत्ते को अफ़सोस नहीं होता
ऐसा ही मेरा भी वक़्त आ चला है
तो मैं चलूँ?
~ फ़िज़ा
No comments:
Post a Comment