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जीने के लिए प्यार ही काफी है

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जीने के लिए प्यार ही काफी है ज़माने में ऐसा,ज़रा कम मानते हैं इंसान को इंसान नहीं पैसों से मतलब है फिर चाहे वो चिकित्सक हो या रोगी हर कोई लूटने और लुटने को है तैयार सिर्फ एक पल की ज़िन्दगी के लिए  आराम और दर्दहीन होने के लिए जीवन मूल्य चुकाने को होते हैं तैयार भूल जाते हैं क्या चाहिए क्यों चाहिए तब तक, जब तक मौत खड़ी न हो सामने सुबह की शाम होने पर जैसे लौट आते हैं -इंसान इंसान को चाहिए इंसान का प्यार और उसका साथ ! ~ फ़िज़ा

भेद-भाव का न हो कहीं संगम !

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कविता पढ़ने -सुनने की नहीं है इसे पहनो, पहनाने की ज़रुरत है वक्त बे वक्त बरसों से ज़माने में हैं महाकवि से लेकर राष्ट्र कवी तक हैं देश के नागरिकों को जागरूक करते हैं वीर रस की कवितायेँ लिखते हैं इंसान को इंसान होने का एहसास दिलाते हैं जाग मनुष्य तू किस लिए बना है ? कीड़े-मकोड़ों सा जी-मरकर चले जाना है? या अपनी मनुष्य जाती का मूल्य बचाना है ? अरे! तू जाग अभी, वर्ना बहुत देर हो जाना है लोगों के आँखों में धूल झोंकने का समां है पुरानी रीती-रिवाज़ों को लेकर आना है फिर वही 'बांटों और राज़' करो की भाषा है हर पीढ़ी हर इंसान भुगत चूका है हर कमज़ोर हर अनुगामी भुगतरहा है तुम धैर्य का पथ पकड़ो और सवाल करो क्यों इंसान - इंसान में भेद-भाव है क्यों जाती-पाँति का रट आज भी है ? क्यों धर्म की बातों से अधर्म का काम करते हैं क्यों इंसानी रिश्तों में खून का रंग भरते हैं अमन-शान्ति को क्यों नफरत से देखते हैं? क्यों आखिर, इंसान सोचता नहीं? क्यों इतिहास हमेशा दोहराता है? क्यों न तुम आज तमन्नाओं को जगाओ हर इतिहास को पलट कर नया ज़माना रचाओ हर कोई इंसान और इंसानियत का हो धर्म हर किसी के हिस्से में उसकी अपनी...

मैं ज़िंदा हूँ शायद अभी कहीं से

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  मैं ज़िंदा हूँ शायद अभी कहीं से के हर अन्याय और अत्याचार से पसीजता है ये दिल कहीं अंदर से कुछ न कर पाने की ये अवस्था से जब देखते हैं नित-दिन अखबार से सोशल-मीडिया भरा कारनामों से गरीब वहीं आज भी बिलखते से ज़िन्दगी इसके आगे नहीं कुछ जैसे सेहता है अन्याय ऐसे मज़बूरी से और अमीर वहीं अपने आडम्बरों से पैसों से और उसके भोगियों से नितदिन अत्याचार आम इंसान से कभी तो अच्छे दिन के ख्वाब ही से बड़ी-बड़ी बातों के ढखोसलों से जी रहा कराह रहा काट रहा ऐसे ज़िन्दगी एक ज़िम्मेदारी हो जैसे इनकी बात आखिर कोई सुने कैसे ? ~ फ़िज़ा

जाग इंसान क्यों दीवाना बना ...!

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सुना था जानवर से इंसान बना मगर हरकतों से जानवर ही रहा  ! इंसान बनकर कुछ अकल्मन्द बना मगर जात -पात  में घिरा रहा  ! वक़्त बे-वक़्त इंसान ज़रुरत बना   वहीं इंसान के जान का प्यासा रहा ! इंसान शक्तिशाली बलिष्ट बना वहीं जानवर से भी नीचे जा रहा ! समय कुछ इस तरह है अब बना जानवर से सीखना यही उपाय रहा ! यही तो आदिमानव से इंसान बना फिर क्यों भूतकाल में बस रहा? जाग इंसान क्यों दीवाना बना वक़त सींचने का जब आ रहा ! ~ फ़िज़ा

कहीं आग तो कहीं है पानी ...!

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कहीं आग तो कहीं है पानी प्रकृति की कैसी ये मनमानी हर क़स्बा, प्रांत है वीरानी फैला हर तरफ पानी ही पानी कहीं लगी आग जंगल में रानी वहीं चाहिए बस थोड़ा सा पानी मगर प्रकृति की वही मनमानी संतुलन रहे पर ये है ज़िंदगानी कहीं लगी है आग तो कहीं पानी  दुआ करें बस ख़त्म हो ये अनहोनी कभी नहीं देखी-सुनी ऐसी कहानी कहीं आग तो कहीं है पानी प्रकृति की कैसी ये मनमानी ! ~ फ़िज़ा

ऐसा कहता है इतिहास हमारा

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देश की एक सुन्दर छबि मन में थी बचपन से कभी कविताओं में तो उपन्यासों में पढ़े आज़ादी के किस्से मतवाले शहीदों की दिलेरी एक-दूसरे का दर्द मानों सारा जहाँ एक परिवार हो सुनहरे सपनों सा सुन्दर चित्रण हुआ करता कभी किसी किताबों में ऐसा कहता है इतिहास हमारा जाने क्या हो गया उस देश को हमारा पहले जैसा कुछ भी नहीं है बेचारा न वो देशभक्ति न ही वो भाईचारा हर कोई एक-दूसरे के खून का प्यासा धर्मनिरपेक्ष राज्य था कभी ये प्यारा अब हिन्दू - मुसलमान जान का मारा न रहीं वो गलियां गुलजारा जहाँ करते थे बच्चे खेला कभी अमवा की वो डाली जिस पर करती कोयल सबसे मधुबानी अब तो वो दूकान भी नहीं हैं जहाँ चाचा मुफ्त में दे दे गोली दो-चार बहुत दुःख हुआ ये देख हर तरफ मॉल, फ़ास्ट फ़ूड और विदेशी सामान अब तो अपने देश में भी न मिले देश की वो पहचान !!! ~ फ़िज़ा

गर्मी वाली दोपहर...!

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ऐसी ही गर्मी वाली दोपहर थी वो हर तरफ सूखा पानी को तरसता हुआ दसवीं कक्षा का आखिरी पेपर वाला दिन बोर्ड की परीक्षा पढ़ाई सबसे परेशान बच्चे मानसिक तौर से थके -हारे दसवीं के विद्यार्थी पेपर के ख़त्म होते ही घर का रास्ता नापा न आंव देखा न तांव देखा साइकिल पे सवार घर पहुँचते ही माँ ने गरम-गरम खाना परोसा भरपेट भोजन के बाद नींद अंगड़ाई लेने लगी गर्मी के दिन की वो नींद भी क्या गज़ब की थी बाहर तपती ज़मीन, आँखों में चुभते सूरज की लौ घर के अंदर पंखे की ठंडी हवा की थपथपाहट और पंखें की आवाज़ मानो लोरी लगे कानों को एकाध बीच में कंकड़ों की आवाज़ जो की कच्चे आमों से लगकर ज़मीन पर गिरती मानो अकेलेपन को बिल्कुल ख़त्म करती सुहाने सपने लम्बी गहरी नींद की लहरें अचानक दोस्तों की टोली टपकती पानी के छींटें बस नाक में दम था आये थे बुलाने डैम में चलो नहाने गर्मी का मौसम और ठन्डे पानी में तैरना सोचकर उठा जाते-जाते बोल गया 'अभी आता हूँ अम्मा ' कहकर चला गया फिर जब वो आया तो कफ़न ओढ़कर आया अव्वल नंबर का तैराक था वो फिर क्या हुआ? शायद बुलावा आगया परीक्षा जो ख़त्म हुआ महीनो बाद रिजल्ट आया बहनों ने जाकर देखा मुन्ना अव्वल...