मैं ज़िंदा हूँ शायद अभी कहीं से

 
मैं ज़िंदा हूँ शायद अभी कहीं से
के हर अन्याय और अत्याचार से
पसीजता है ये दिल कहीं अंदर से
कुछ न कर पाने की ये अवस्था से
जब देखते हैं नित-दिन अखबार से
सोशल-मीडिया भरा कारनामों से
गरीब वहीं आज भी बिलखते से
ज़िन्दगी इसके आगे नहीं कुछ जैसे
सेहता है अन्याय ऐसे मज़बूरी से
और अमीर वहीं अपने आडम्बरों से
पैसों से और उसके भोगियों से
नितदिन अत्याचार आम इंसान से
कभी तो अच्छे दिन के ख्वाब ही से
बड़ी-बड़ी बातों के ढखोसलों से
जी रहा कराह रहा काट रहा ऐसे
ज़िन्दगी एक ज़िम्मेदारी हो जैसे
इनकी बात आखिर कोई सुने कैसे ?

~ फ़िज़ा

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