बचपन में सुनी थी कई कहानियां
कभी नानी कभी मासी की ज़ुबानियाँ
जब पड़ा पृथ्वी पर ज़ुल्म की बौछारियाँ
और कई कारणवश हुए भी बरबादियाँ
तब निःसंवार करने पैदा हुए अवतरणियां
काल का क्या बदलना है समय के साथ
और इंसान की बदलती नियति के समक्ष
बिगड़ने लगा संतुलन और संयम प्रकृति का
एक बलवान रूप विषाणु हुआ पैदा इस बार
लगा मचलाने इंसान को हर कोने-कोने पर
रंगीला, फूलों सा सुन्दर खिला-खिला सा
नाम जिसका कॅरोना लगे हैं मोहब्बत सा
किसी के छूने से तो छींख से जकड ले ये
कमसिन मोहब्बत का बुखार हो किसी का
जो चढ़े तो फिर आग का दरिया सा ही लगे
पार जिसने भी लगाया जान लेकर ही रहा है
इंसान के अहंकार को प्रकृति की ललकार है
बहुत ऊँचा न उड़ रख तो डर किसी का नादाँ
इंसान और प्रकृति में बढ़ गया अस्मंजसियां
बिगड़ गया संतुलन प्रकृति और इंसान का
कॅरोना ने आज सभी को ज़ब्त कर लिया
सिमित दीवारों के बीच जैसे कालकोठरियाँ
फासले बनाये रखें सबसे सभी के दरमियाँ
शुक्र है उसका जो जान गया और संभल गया
जो न समझा है न समझेगा अपने गुरुर से
वो भला कहाँ कभी किसी के काम आएगा
वक़्त हर किसी को परखता है हर पल हमेशा
तू इंसान हैं, सुधर जा अब भी है तुझे ये मौका
बिता वक़्त उस घर में उस परिवार संग अपने
जिसे बनाते-बनाते उम्र गुज़र गयी साथ छूठ गए
मौका है तू इसे अपना ले कॅरोना के बहाने ही सही
इंसान तू, ज़मीन का है ज़मीन से ही जुड़ जा संभल जा !
~ फ़िज़ा
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