बच्ची हूँ नादाँ भी शायद
तब तक जब तक देखा नहीं
और देखा भी तो क्या देखा
सिर्फ अत्याचार और कुछ नहीं
कभी बात-बात पर टोका-तानी
तो कभी ये कहना लड़की हो तुम
बात-बात पर दायरे में रखना
कहकर बस में नहीं तेरे जानी
तुम लड़की हो तुमसे नहीं होनी
बरसों का ये रिवाज़ यूँही बनी
और हर पीढ़ी ये सोच चुप रही
है रीती यही है निति चुप रहो
लड़की में वाक़ई है कुछ बात
जो वो कुछ भी नहीं कर सकती
वक्त आया है भ्रम तोड़ने का
इतिहास गवाह है पन्ने -पन्ने का
नारी में है जो बात शायद वो सही है
आदमियों से कुछ खास वोही है
जो निडर, कोमल शालीन सही
मौका लेकर दिखलाये रंग नया
तोड़ दो भेद-भाव का ये ज़ंजीर
समाज में चलना कदम बढ़ाये
एक साथ और एक समान
चाहे फिर वो हो नर या नारी !
~ फ़िज़ा
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