ज़िन्दगी के धक्कों में
कहीं जवानी और ज़िन्दगी
दोनों खो गयीं
उम्र के दायरे में
रहगुज़र करते-करते
ज़िन्दगी से क्या चाहिए
ये भी न जान पाए
वक़्त कठोरता से
बिना रुके चलते रहा
देख के, के कब समझोगे
और हम वहीं सोचते रहे
यादों के काफिलों को
गुज़रते हुए देखते रहे
जब काफिले थम गए
तो याद आया चलो
अपने लिए न सही
किसी और के लिए
जियें!
~ फ़िज़ा
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