मैं देखती हूँ इन नज़ारों को कुछ इस तरह
मानो मुंह दिखाई का रस्म हो जिस तरह
हर चीज़, जगह बदल चुकी है इस तरह
मानों जैसे मौसम बदलता हो किसी तरह
हर सेहर और पहर घूरतीं हैं मुझे इस तरह
मानों अजनबी हूँ इस शहर में किसी तरह !!
खुश हूँ! चंद दोस्त हैं अब रह गए इस तरह
याद दिलातें हैं बचपन के खुशबु की तरह
मस्ती और उनकी हस्ती सुनहरी धुप की तरह
वो अब भी नहीं बदले गुज़रे वक़्र्त की तरह
हँसी की कल-कल बहती जल की धारा
यही महसूस होता है ज़िंदा हैं हम इस तरह !!
~ फ़िज़ा
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