ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
Monday, June 08, 2015
विस्मरणिया है संगम ऐसा ...
शुष्क मखमल सी बूँदें
मानो ओस की मोती
लड़ियाँ बनाके बैठीं हैं
एक माला में पिरोये हुए
सुन्दर प्रकृति की शोभा में
बढ़ाएं चार चाँद श्रृंगार में
मचल गया मेरा दिल यहीं
लगा सिमटने उस से यूँ
जैसे काम-वासना में लुत्प
विस्मरणिया है संगम ऐसा
हुआ मैं तृप्त कामोन्माद
मंद मुस्कान छंद गाने मल्हार
प्रकृति का मैं बांवरा हुआ रे
श्रृंगार रस में डूबा दिया मुझे
~ फ़िज़ा
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