फिर गुस्ताखी करने चली हूँ
खुद से मोहब्बत करने लगी हूँ
चाँद अब मेरा पीछा करता है
उस मुये से अब मैं छिपती हूँ
आहें भरते है दोनों तरफ आग
डरती हूँ और मिलना भी चाहूँ
दिल ओ दिमाग से मसरूफ हूँ
गुनगुनाती फ़िज़ा ख्यालों में घूम हूँ
~ फ़िज़ा
ऐसा था कभी अपने थे सभी, हसींन लम्हें खुशियों का जहाँ ! राह में मिलीं कुछ तारिखियाँ, पलकों में नमीं आँखों में धुआँ !! एक आस बंधी हैं, दिल को है यकीन एक रोज़ तो होगी सेहर यहाँ !
ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...
1 comment:
बहुत खूब...खुद से बतियाती और अकेले में गुनगुनाती रचना।
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