ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को !


ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में 
खुद को !
बदल जाती हैं मेरी राहें दूसरों  के सफर में 
खुद को भुलाकर उस राह निकल गया मैं 
कभी किसी के तो कभी किसी को सफर में 
पहुँचाने के बहाने ही सही अपनी राह से हुआ 
बेखबर !
ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को !
क्यों मैं भटक जाता हूँ अपने ही सफर से फिर
लगता है जैसे मेरा होना शायद है इसी के लिए  
किसी के लिए बनो सहारा तो किसी को दो यूँही 
हौसला !
ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को !
कहाँ हैं मेरे ख्वाबों का वो कम्बल जिसे पहने 
होगये बरसों मगर कभी यूँही हिंडोले लेता हुआ 
कभी -कभी कर जाते हैं मेरे होने न होने का ये 
एहसास !
ढूंढ़ने निकला हूँ मैं अपने ही सफर में खुद को !

~ फ़िज़ा 

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