ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे?
जब ज़िन्दगी ही कुछ न कर सके
बहती धारा की तरह निकलती है
सरे आम घूम-घाम कर बढ़ती है
और देखो तो ज़िंदगी मझधार में
सीखा देती है अपने और पराये
अपने होते हैं कम होते हैं और
पराये करीब अपने से लगते हैं
क्यों ज़िन्दगी ऐसा सब सीखाती
मगर सोचने पर मजबूर करती है
ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे?
जब सोचा था नहीं पड़ना है कहीं
झमेलों से बचना है आगे बढ़ना है
जिसे जो चाहे वो ले लेने दो उसे
न भावनाओं में बेहना है किसी के
न ही किसी का उद्धार करना है
अपना जीवन जी लो तो बहुत है
न मुसीबत को मोलना न झेलना
जिनसे भी मिलना मिलनसार रहना
अकेले आये हो अकेले चले जाना
ज़िन्दगी से कोई क्या गिला करे?
~ फ़िज़ा
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