कब ?

ज़िन्दगी मदहोश होकर चली
बारिश की बूंदो सी गिरती हुई
कभी जल्दी तो कभी हौले से
ठंडी टपकती तो कभी गीली
रोमांचक रौंगटे से चुभती हुई
गर्म बादलों की चादर ओढकर
सिकुड़कर सोने का ख्वाब वो
कब पूरा होगा?




सुहानी वो नींद सुबह के ५ बजे
घडी की अलारम कहे, उठो!
और दिल कहे, नहीं !
हाँ और न में गुज़रे कई पल
दिल और दिमाग़ की लड़ाई में                            
आखिर दिमाग का जितना
जिम्मेदारी का जितना और
एक बच्चे सा दिल का हारना
कब वो जीतेगा?
इंतज़ार में... !
~ फ़िज़ा

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