कहने को दूर रहते थे हम...!




रिश्ता तो वैसे दोस्त का था
कहने को दूर रहते थे हम
जब मिलते थे कभी साल में
करीबी दोस्त हुआ करते थे हम
ज़िन्दगी में अपनों से सब कहते
या कभी अपना दुःख नहीं जताते
माता-पिता को दुःख न हो इस करके
तो दोस्त से सब कुछ क्यूंकि समझते थे
यही रिश्ता था मेरा इनसे और
इनका मुझ से जब जहाँ में वो थे
ज़िन्दगी एक थाली में परोसते थे
एक-दूसरे को हौसला देकर फिर
दोनों खूब हसंते और ज़िन्दगी जीते
कहीं एक उम्मीद,आस नज़र आती
अब तो दूर-दूर तक का भी पता नहीं
साल में दो बार जाऊं देश तब भी
मुलाकात की कोई सूरत नहीं
किस को सुनाएं अपनी दास्ताँ
जिस पे भरोसा करें वो न रहा
यादें अक्सर ख़ुशी तो कभी
ज़िन्दगी से बोरियत करवाती है
५४ के थे जब वो चले यहाँ से
जल्दी में गए वो इस तरह
कभी-कभी लगता है जैसे
मेरा भी ५४ का वक्त आ रहा है ...
~ फ़िज़ा

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