खुदगर्ज़ मन

 



आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है 

अकेले-अकेले में रहने को कह रहा है 

फूल-पत्तियों में मन रमाने को कह रहा है 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


कुछ करने का हौसला बड़ा जगा रहा है 

जीवन का नया पन्ना खोलने को कह रहा है 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


समझा रहा है बेड़ियाँ तो सब को हैं मगर 

बेड़ियों की फ़िक्र क्यों जीने से रोके मगर 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


पंछी सा है मन रहता है इंसानी शरीर में 

कैसा ताल-मेल है ये उड़ चलने को केहता है 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


घूमना चाहता है दुनिया सारी बेफिक्र होके 

जाना सभी ने अलग-अलग फिर क्या रोके?

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


मोह-माया के जाल में न धसना केहता है 

जाना ही है तो मन की इच्छा पूरी करता जा 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


तू अपनी मर्ज़ी की करता जा खुश रह जा 

दुनिया कहाँ सोचेगी जो तू दुनिया की सोचे है 

आजकल मन बड़ा खुदगर्ज़ हो चला है !


अब मैंने भी मन से मन जोड़ लिया है 

खुश, आज़ाद रेहने का फैसला कर लिया है 

आजकल मन ही नहीं मैं भी खुदगर्ज़ हो चला हूँ !!


~ फ़िज़ा 


Comments

Nitish Tiwary said…
मन के भवनाओं को उकेरती सुंदर कविता।
Dawn said…
Nitish Tiwary Ji, aapka behad shukriya yahan aakar meri rachna ko sarahne aur meri houslafzayi karne ka, sadar pranaam!!!

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