Tuesday, July 18, 2006

आज भी लकडियाँ बँटोरता हूँ...

आज के युग में जो भी हो रहा है....उन सभी को मद्‍दे नज़र रखते हुए येही कुछ लिख बन पाया हमसे...आप सभी के
इसिलाह की मुंतजि़र.....

लकडियॉ बिन ने आया था किसी रोज़
काले बादलों का कॉरवॉ आता देख
छोड गया इन्‍हें ये सोच..
कल फिर आॐगा !

आज नया दिन है..पहाडों की परछाई के पीछे से
किरण झॉक रही थी और शुश्‍क हवा
अँगिठी के पास बैठने का बहाना दे रही थी !

याद आया, आज फिर लकडियॉ बिननी है
सुना है इस बार जा़डे की सरदी कुछ लम्‍बी है
लकडियों पर ओस की मोतियॉ
मानों लडी बनाकर बैठीं हों !

मैंने एक नहीं मानी-गिली ही सही
उठा लाया उन्‍हें जलाने के वास्‍ते...
सुबह उठा तो देखा लकडियों पर
हरी-हरी पत्‍तियों की कोपलें निकल आईं हैं
मानो मरे हुये में जान आ गई !

फिर दिल न माना कुछ और सोचने
निकाल फेंका बगीचे में, के
फूलो-फलो तुम भी बगीया के किसी कोने में
बन जाओ एक इसी गुलिस्‍तॉ में !

फिर सोचने लगा मैं -उस दिन बादलों को देख...गर मैं
खाली हाथ न चला आता
तो शायद ये राख का ढेर बनी रेहतीं
मैं कुछ और गरम आँच सेख लेता....लेकिन फिर सोचा -
जीवन-दान की जो आँच में सुकून है
वो किसी आग की आँच में कहॉ?
आज भी लकडियाँ बँटोरता हूँ...
लेकिन देख-परेख के.....!!!

~फिजा़

5 comments:

kumarldh said...

kya kahun ji
idhar kaam dham me itna ulajh giya hoon ke kavita ki samajh bhi nahi rahi
araam se padh kar teeka tippni karunga

Tanvi said...

This is so very true.jeevan-daan se bada sukh shayad hi kuchh aur de sakta hoga.jeevan-daan se khud ko bhi naye jeevan ka ehsaas hota hai!

rachana said...

hi sehar... baut achcha likha hai ji!!!

Manish Kumar said...

Well done! Achcha likha hai
Jeevandaan is offcourse Mahadaan

How do we know said...

its very beautiful..

करो न भेदभाव हो स्त्री या पुरुष !

  ज़िन्दगी की रीत कुछ यूँ है  असंतुलन ही इसकी नींव है ! लड़कियाँ आगे हों पढ़ाई में  भेदभाव उनके संग ज्यादा रहे ! बिना सहायता जान लड़ायें खेल में...